Saturday, April 27, 2013

नेताओं के बच्चे क्यों नहीं जाते सरहद पर रक्षा के लिए


सूचनार्थ: आपकी सुरंजनी के इस लेख को 'सादरब्लागस्ते' द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में राजधानी की विख्यात संस्था "शोभना वेलफेयर सोसाइटी' ने  ब्लाग रत्न के सम्मान से नवाजा है.आप सभी पाठकों के लिए पेश है यह पुरस्कृत आलेख...
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देश में इन दिनों सेना और सरकार के सम्बन्ध संभवतः आजादी के बाद सबसे ज्यादा विवादित हैं.सरकार में सेना के प्रति अविश्वास बढ़ रहा है तो सेना भी नेताओं को कुछ नहीं समझ रही.ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या वजह है कि सेना और सत्ता प्रतिष्ठान के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन क्यों बढती जा रही है.दरअसल इसका कारण देश के नेताओं का "हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के और" कहावत जैसा व्यवहार है.वे सेना,शहादत,देशप्रेम,राष्ट्रभक्ति और बहादुरी के जज्बे के साथ मुल्क पर मर मिटने को लेकर बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं परन्तु जब बात खुद पर आती है तो बचने के रास्ते भी निकाल लेते हैं.देश के नेताओं का कुछ ऐसा ही हाल सेना में अपने बच्चों को भेजने को लेकर है.राष्ट्रप्रेम की रोटी खाने वाली भाजपा से लेकर शहीदों पर राजनीति करने वाली कांग्रेस के किसी भी आला नेता के बच्चे सेना में नहीं है.ये दोनों पार्टियां ही नहीं बल्कि किसी भी राजनीतिक दल के बड़े नेता ने अपने बच्चों को सैन्य सेवा में भेजने की जरुरत नहीं समझी.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के बच्चे किसी परिचय के मोहताज नहीं है.उनके पुत्र और पार्टी के युवराज राहुल गाँधी का तो लाल कालीन बिछाकर प्रधानमंत्री पद के लिए इंतज़ार किया जा रहा है.उन्होंने देश-विदेश में पढ़ने के बाद भी देश के लिए सरहद पर जाकर मर-मिटने की बजाये राजनीति का 'पैतृक' रास्ता चुना. उनकी बहन और गाँधी परिवार का लोकप्रिय चेहरा प्रियंका अपने परिवार और कभी-कभी वक्त निकालकर कांग्रेस को संवारने में ज्यादा व्यस्त हैं. भाजपा के 'आलाकमान' लालकृष्ण आडवाणी भी इस मामले में सोनिया के ही हम राह हैं.उनकी बिटिया प्रतिभा आडवाणी ने सेना की पथरीली राह की बजाए पिता के राजनीतिक साये में रहकर टीवी के जरिए नाम कमाने का आसान रास्ता चुना.संसद में गंभीर बहस से ज्यादा अपने मसखरेपन के लिए चर्चित लालू प्रसाद ने तो आधा दर्जन से अधिक बच्चों के बाद भी किसी को सैन्य सेवा में भेजने की जरुरत नहीं समझी.हाँ,अपने बच्चों के 'मीसा' जैसे तत्कालिक महत्त्व के नाम रखकर इन नामों से लोकप्रियता कमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लालू ही क्यों देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी,गृह मंत्री पी चिदम्बरम,लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज,राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली,भाजपा के मुखिया नितिन गडकरी,कृषि मंत्री शरद पवार, केन्द्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल,फारुख अब्दुल्ला,अजीत सिंह,कमलनाथ,विलासराव देशमुख,समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव,शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे सहित तमाम नेता ऐसे हैं जिनके बच्चे सेना से तो दूर हैं पर राजनीति से दूर नहीं है.जहाँ शरद पवार,फारुख अब्दुल्ला,अजीत सिंह जैसे नेताओं ने खुद अपने बच्चों के लिए राजनीति का मैदान तैयार किया और चांदी की थाली में मनमाने पद उन्हें सौपने में देरी नहीं की, वहीँ प्रणब मुखर्जी,कमलनाथ और चिदम्बरम जैसे नेताओं ने अपने बच्चों के लिए व्यापार-व्यवसाय की सुरक्षित राह चुनी.पिता की विशाल राजनीतिक छत्रछाया में इनके लिए व्यवसाय के तमाम नियम-कानून बौने साबित हो रहे हैं.बाल ठाकरे ने तो खुद की 'सेना' बनाकर हुकुम चलाना और राज एवं उद्धव ठाकरे को सुरक्षित विरासत सौपने की तैयारी सालों पहले कर ली थी.सेना में अपने बच्चों को भेजने के सवाल पर ज्यादातर नेता कन्नी काटने की कोशिश करते हैं या फिर यह कहकर बात को टाल देते हैं कि वे अपने बच्चों के कैरियर सम्बन्धी फैसलों में दखल नहीं देते. यदि वे सेना में जाना चाहते तो हम उन्हें रोकते भी नहीं.
मध्यप्रदेश में 'राजा साहब' और केन्द्र में बयानवीर माने जाने वाले दिग्विजय सिंह,शाही सिंधिया परिवार,सैनिकों की संख्या और सैन्य परंपरा के लिए विख्यात पंजाब का सत्तारूढ़ बादल परिवार,हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्रसिंह हुड्डा,छत्तीसगढ़ के मुखिया रमन सिंह,हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल जैसे सैकड़ों नाम हैं जिन्होंने हमेशा दुहाई तो देश के लिए बलिदान की दी लेकिन वक्त पड़ने पर अपने बच्चों को फिल्म,राजनीति,व्यवसाय जैसे आसान धंधों में उतारना उचित समझा.खास बार यह है कि इन राज्यों से सर्वाधिक संख्या में युवा सेना में जाते हैं.इसका एक कारण यह भी है कि कारपोरेट जगत में मिल रहे वेतन के सामने सेना की सूखी तनख्वाह का क्या मोल है.फिर इतने सालों के परिश्रम से राजनीति में जो मुकाम हासिल किया है उसे सँभालने के लिए भी कोई चाहिए? अब अगर बेटा ही सेना में चला गया तो नेता जी की गद्दी कौन संभालेगा.
शायद इस बात को कम ही लोग जानते होंगे कि ब्रिटेन में राज परिवार की हर पीढ़ी के एक सदस्य का सेना में जाना अनिवार्य है.वहां राज परिवार में सेना के प्रति अपने उत्तरदायित्व निभाने का जज्बा इतना ज्यादा है कि राजकुमार और भावी राजा प्रिंस हैरी तो अनिवार्य सेवा के बाद भी सेना में ही रहना चाहते हैं.इसीतरह इजराइल में तो हर परिवार में युवाओं के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य है लेकिन हमारे देश में "पर उपदेश कुशल बहुतेरे"को अपनाने वाले नेता अपने बच्चों की जान किसी जोखिम में नहीं डालना चाहते परन्तु आम लोगों को सेना से जुड़ने का ज्ञान देने में पीछे नहीं रहते.एक युवा नेता इस बारे में कहना है कि 'देश-वेश के प्रति प्रेम किताबों में ही अच्छा लगता है.अरे जब घर बैठे ही लाखों मिल रहे हैं तो सीमा पर जाकर दुश्मन की गोली खाने की क्या जरुरत है."
नेताओं की बेरुखी के कारण आज आलम यह है कि सेना को उपयुक्त नौजवान नहीं मिल रहे हैं. हाल ही में कराये गए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि देश में नौकरी के लिए युवाओं की प्राथमिकता में सेना का स्थान सातवां है.इसका कारण साफ़ है जब उन्हें दूसरी नौकरियों में बिना किसी जोखिम के ज्यादा वेतन मिल रहा है तो वे सेना में जाकर ख़तरा क्यों मोल लेंगे?युवाओं के बदलते झुकाव के कारण भारतीय सैन्य अकादमी(आईएमए)में 150 तो राष्ट्रीय रक्षा अकादमी(एनडीए) सहित देश के सभी प्रमुख रक्षा संस्थानों में 100 से अधिक सीटे खाली पड़ी हैं.किसी समय इन संस्थानों में प्रवेश पाना पूरे परिवार और उस गाँव तक के लिए गौरव की बात मानी जाती थी लेकिन अब स्थिति यह है कि भारतीय सेना में अधिकारी के 11 हजार से ज्यादा पद खाली हैं.वायुसेना में डेढ़ हजार और नौसेना में 1400 से अधिक पद खाली हैं.इसका सीधा असर देश की सुरक्षा और सैन्य तैयारियों पर पड़ रहा है

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