Thursday, August 14, 2014

पर्वों को निभाएं भर नहीं अपनाएं भी................

हम अपने समाज को आधुनिकता  और पश्चिमी  सभ्यता में  रंगा हुआ देखकर गर्व  का अनुभव करते है. पर क्या वाकई यह गर्व का विषय है? शायद नहीं, हम जिस आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़  का हिस्सा बन गए है. हमने कभी सोचा है इस ने हमे कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है. यह सोचने की न ही  हमने कोई कोशिश की, न ही कभी जरुरत महसूस हुई. अगर अब भी हम इस ओर ध्यान नहीं देते, तो इस देश और समाज का क्या हश्र होगा कोई नहीं जाता. अभी कुछ दिन पूर्व हम ने राखी का त्यौहार मनाया. यह त्यौहार हम प्राचीन काल से मनाते चले आ रहे है. हम सभी जानते है, कि यह त्यौहार भाई बहन के असीम प्यार और विश्वास का प्रतीक है.पर आज के समय में इस त्यौहार का महत्व और भी ज़्यादा बढ़ गया है,जहाँ हमारे समाज में रिश्तों का स्तर लगातार गिर रहा है,ऐसे में किसी भी रिश्ते को निभाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है.
आज कोई भी रिश्ता विश्वास और अपनेपन से कोसों दूर है. हम केवल  त्योहारों को महज खाना पूर्ति के तौर पर मनाते है.वास्तविकता तो यह है कि कोई भी त्यौहार पूरा परिवार एक साथ नहीं मनाता, सभी की अपनी व्यस्तताएँ है. एक ओर हम सभी रिश्ते निभाने का दावा करते है, वहीँ दूसरी ओर हमे  उन्हें निभाने के लिए मदर्स डे,फादर्स डे, ग्रैंड पेरेंट्स डे, डाटर्स डे का सहारा लेना पड़ रहा है, हम रक्षा बंधन पर  अपने भाई की कलाई पर राखी बांधते है.भाई हमें  उपहार के साथ हमारी सारी उम्र रक्षा करने का प्रण लेता है,क्यों नहीं हम भाई से एक और प्रण लेने को कहें कि  वह देश की अन्य बहनों की भी विपत्ति में रक्षा करेगा,उनके साथ न तो कभी दुर्व्यवहार करेगा और न ही किसी को करने देगा. हमारे  समाज  में माता-पिता,भाई-बहन,पति-पत्नी,मित्र जैसे तमाम रिश्तों में मनमुटाव और वैमनस्यता बढ़ रही है.आज समाज में गुरु और शिष्य जैसे पवित्रतम रिश्ते की पवित्रदेह के घेरे में है.इस माहौल में  हम अपने आप को चारों ओर डर और दहशत से घिरा पा रहे है, हम अपनी बेटियों को न घर में,न स्कूल, न किसी अन्य जगह सुरक्षित पाते हैं. आज उनके लिए घर तक में अपनी अस्मिता को बचा पाना एक बड़ा सवाल बन गया है. कुछ साल पहले की एक घटना मुझे याद आ गयी इसे मैं यहाँ व्यक्त करना चाहूंगी,,घटना दिल्ली से जुडी है.आपको याद होगा आरुषी हत्याकांड जिसने रिश्तों के मायने ही बदल दिए,  कारन कोई हो पर क्या एक मां बाप क्या अपनी इकलौति बेटी को मौत के घाट उतार सकते है.वो भी इस तरह,इसी तरह स्कूल में बच्चों के साथ हो रहे दुष्कर्म  से जुड़ी एक घटना बंगलुरु के स्कूल में घटी जिसने गुरु शिष्य के बीच के सम्मान और आदर को धूमिल कर दिया.
क्यों  इस ओर  हम सभी का ध्यान नहीं जाता या हम इस ओर  अपना ध्यान ले जाना नहीं चाहते,पर अब वक़्त आ गया है  कि हम सभी इस ओर ध्यान दें  और अपनी बेटियों को सुरक्षित महसूस कराने में हाथ बटायें. तभी रक्षाबंधन और पाश्चात्य दिवसों को मनाना सार्थक होगा.....................

6 comments:

  1. बहुत सही कहा आपने पर्व के महत्ता तभी सार्थक है जब उसे निभाया जाय....
    रक्षा पर्व के सन्दर्भ में बहुत बढ़िया सार्थक और प्रेरक प्रस्तुति

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  2. बहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति

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