Monday, August 22, 2016

खैरात मत बांटिए नेताजी खेलों पर लगाइए अपना ध्यान

अब खैरात बांटने का दौर शुरू हो गया है। नेताओं,मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के वेश में राजा-महाराजों और राजनीतिक जागीरदारों ने अपने ख़जाने खोल दिए हैं। किसकी कमीज़ ज्यादा सफ़ेद की तर्ज पर मुकाबला चल रहा है कि कौन कितनी खैरात देता है। किसी 25 लाख दिए तो किसी ने 50 तो किसी ने एक करोड़। आम आदमी के रहनुमा ने अपने आपको सबसे बड़ा दरियादिल दिखाते हुए 2 करोड़ का ऐलान कर दिया। आंध्र और तेलंगाना सरकारों में तो एक दूसरे से बड़ा दानवीर बनने की होड़ सी मच गयी।अब अपनी जेब सर तो कुछ जा नहीं रहा...जनता का पैसा है/टैक्स पेयरों की गाढ़ी कमाई है तो क्या नाम और इकबाल तो अपना बुलंद होगा न इसलिए हर कोई बाँट रहा है और पूरा हाथ खोलकर।
मुझे इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि हमारे पदक विजेता खिलाड़ियों को पैसे दिए जा रहे हैं बल्कि मैं तो यह कहना चाहती हूँ कि पदक विजेता ही क्यों चौथे स्थान पर रहे खिलाड़ियों को भी इनाम मिलना चाहिए। आखिर दुनिया के नामचीन खिलाड़ियों के बीच चौथा स्थान हासिल करना किसी पदक से कम है क्या। मुझे हमारे नेताओं के सरकारी पैसे से दानवीर बनने पर आपत्ति है। अरे साहब! आप इतने ही बड़े दानवीर है तो पार्टी फंड से दीजिये न। उसमें जो करोड़ों काले पीले  बिना हिसाब के जमा है उनका कुछ सदुपयोग कर लीजिये।
दरअसल,हमारे राजनेताओं ने इतना ही खेल प्रेम इन खेलों की तैयारी में दिखाया होता तो देश पदकों के लिए न तराशता और जश्न मनाने के लिए सवा सौ करोड़ लोगों में एक सिन्धु और एक साक्षी नहीं ढूढ़नी पड़ती बल्कि शायद हर प्रदेश में ऐसे पदक विजेता मिल जाते और हम भी शुरूआती 20-30 देशों में होते ही। आज जो भी खिलाड़ी सफल है उनके पीछे उनकी काबिलियत और उनके परिवार का समर्पण ज्यादा है न की दानवीर नेताओं की खैरात।
ये खैरातवीर तब कहाँ रहते हैं जब इंच इंच जमीन पर कंक्रीट का जंगल खड़ा होता है और बच्चों को खेल मैदान के अभाव में कंप्यूटर पर खेलना पड़ता है,स्कूलों में खेल के नाम पर खाली पीरियड या फिर दिखावा भर होता है। नामी स्कूलों में पिज़्ज़ा बर्गर और कोक मिलना उन स्कूलों का स्टैण्डर्ड बताया जाता है। एसी क्लासरूम और एसी स्कूल बस तो होती हैं पर तमाम खेल सुविधाओं से परिपूर्ण खेल मैदान और खेलने का समय नहीं।
मेरी आपत्ति यह है कि आप खेलों को प्रोत्साहित कीजिये और इसके लिए दान/सहायता या खैरात जो मन है दीजिए और जी भरकर दीजिए। इसका लाभ यह होगा कि खेल सुविधाएँ बढ़ेगी तो घर घर से साक्षी-सायना निकल सकती हैं। क्यों एक ही गोपीचंद एकेडमी हो,हर राज्य में क्यों नहीं या फिर स्कूल-कालेज के स्तर पर क्यों नहीं। ऐसा क्यों है कि आज भी जब हम खेल और खिलाडियों का इतना जयगान कर रहे हैं तब भी एक होनहार खिलाड़ी को सिर्फ इसलिए आत्महत्या करनी पड़ती है कि उसके पास हास्टल की फीस देने के लिए पैसे नहीं थे। ऐसे समय कहाँ रहते हैं हमारे दानवीर? किसी ख़िलाड़ी की व्यक्तिगत सफलता को भुनाने एवं उसका राजनीतिक फायदा लेने के लिए तो ये खैरातवीर एक पल की देर नहीं करते। सरकारी ख़जाने को बाप-दादा की जागीर की तरह बांटने की होड़ में जुट जाते हैं लेकिन असलियत में जहाँ सहायता की दरकार है वहां मुंह भी नहीं दिखाते।
खेल और खिलाड़ियों के प्रति हमारा यही रवैया रहा तो 2020 में टोकियो में होने वाले ओलम्पिक तो दूर उसके बाद होने वाले खेलों तक में हमारा यही हश्र होगा क्योंकि हम खेलों को प्रोत्साहित नहीं कर रहे बल्कि सफल खिलाड़ियों के कंधे पर चढ़कर सरकारी पैसे से अपनी या अपनी पार्टी की ब्रांडिंग करने में यकीन रखते हैं। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की इसी प्रवृत्ति के कारण आज़ादी के सात दशक बाद भी खेलों का भला नहीं हुआ और शायद आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा। तब तक कोई सिन्धु,साक्षी या कोई नारंग हमें अपना कन्धा उपलब्ध कराते रहेंगे ताकि हम उनकी निहायत ही व्यक्तिगत सफलता का ढोल अपने नाम से पीटते रहे।


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