गीत-संगीत जीवन में एक नयी उर्जा और स्फूर्ति का माध्यम है.संगीत ने हमारे जीवन में एक अद्भुत
स्थान बना लिया है. ‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...’,’एक प्यार का
नगमा है..’,‘आज से तेरी सारी गलियाँ मेरी..’,‘बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक,मेरा
जूता है जापानी ये पतलून इंगलिश्तानी,इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल,मैं जिंदगी का
साथ निभाता चला गया, ए मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी,मेरी प्यारी
अम्मी जो है,जैसे अनेक सुरमय गीत है.जो हमारे दिल में किसी ना किसी तरह के भाव को
जगाते है,चाहे फिर वो देशभक्ति, प्यार, अपनत्व, हास्य,करुणा का भाव हो. आज
धीरे-धीरे गानों के लेखन से लेकर संगीत निर्माण तक में क्रांति का दौर देखा जा रहा
है.जहाँ पहले एक गाने को बनाने में कई महीनों का वक़्त लगता था,सारा काम मानवशक्ति
से ही सम्भव था,अब कम्प्यूटरीकरण की वजह से आसान हो गया है,जहाँ पहले मानवशक्ति और
संसाधनों दोनों के प्रयोग के बाद भी समय काफी लगता था,वही आज गाने तैयार करने में
दिनभर भी नहीं लगता. गानों में एक माधुर्य और गहराई हो तो वो कही ना कही दिल में
उतर जाता है.आज हम गानों के शब्दों से ज्यादा उनके फिल्मांकन को महत्व देने लगे
है,क्योंकि आज गाने के प्रचलन में बदलाव की बयार महसूस की जा सकती है.हम फिल्म
संगीत में स्वर्णिम रेट्रो युग की तरह गानों में एक अद्भुत अनुभूति की कमी पाते
है,अब वो लेखनी भी नही,जो मानवीय संवेदनाओं से जुड़ाव की अभिव्यक्ति करती थी. हमारे
समाज का आइना कहे जाने वाले भारतीय चलचित्र में वो अपनेपन और आत्मीय भाव जो पहले
था.वो अब ना कहानियों में
रहा ना लिरिक्स में, शब्दों का महत्व समझे बिना ही गानों की रचना हो रही.धीरे-धीरे
अश्लील गानों का सृजन होने लगा.उनमें हमने सारी सीमाओं को पार कर दिया, या फिर
पुराने प्रसिद्ध गानों को रीमिक्स करके नये रूप में पेश करने की होड़ सी लग गयी
है.दोनों ही स्थितियों में गाने की मधुरता और सुखद एहसास से छेड़छाड़ हुई.क्या इस तरह
हम अपने संगीत प्रेम को प्रकट कर रहे? वैसे गाने को बनाने में जो सबसे
जरूरी है और जो उसकी आत्मा है वे शब्द है.शब्द ही गाने को सबके बीच प्रसिद्धि
दिलाते है,लेकिन जब उनमें अश्लीलता का
तड़का लगे तो प्रसिद्धि तो है लेकिन स्थायित्व और दिल पर असर छोड़ने की कमी रहेगी,अगर
हम अपने अब के माहौल में इस तरह का संगीत सुनते है तो वो हमें सरसता के स्थान पर
कानफोडू दौर की ओर ले जाता है,वो गाने हमारे विचारों,सोच पर अपना असर छोड़कर अपने
संगीत के माधुर्य से संगीत के अत्याचार की ओर ले जा रहे हैं . क्या हमें इस बात की
गंभीरता को समझने की जरूरत नहीं है? मेरे विचार से इस बात पर वाकई गंभीरता से
सोचने का वक़्त आ गया. क्योंकि हमारी युवा पीढ़ी और बच्चों के बीच इस अश्लील गानों
का अपना एक आकर्षण देखा जा सकता है, विशेषकर उनके फिल्मांकन पर. कुछ यही हाल
फिल्मों का है क्योंकि आज फिल्मों में
कहानियों के नाम पर सार्थक प्रेरणास्रोत और शिक्षाप्रद के स्थान पर आधारहीन
कहानियों की भरमार है. समाज में इस प्रचलन ने एक अलग वर्ग को उभरने का मौका दिया
है. वो माहौल आज हर उम्र के व्यवहार में समझ आ रहा है.आसपास का परिवेश भी विषाक्त
रूप ले रहा है,जिसने व्यक्ति के आचार विचार को पूर्णतः संकुचित कर दिया है. उनके
लिए संगीत मतलब शोरगुल है. संगीतकारों गीतकारों का पूरा ध्यान अब केवल मांग के
अनुरूप शब्दों की ऐसी तुकबंदी गढ़ने पर है जो कम समय में आम लोगों की जुबान पर चढ़
जाए भले ही गीत के तौर पर उसका कोई अर्थ ना हो.मेरे विचार से उन्हें पुराने
संगीतकारों और गीतकारों से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है.केवल पुराने धुनों का
रिमिक्स कर देना कोई प्रेरक नही बल्कि उस तरह के भावना प्रधान गीतों को एक बार फिर
चलन में लाना होगा ताकि गाने की आत्मा को हम संरक्षित कर पायेंगे. हमारे लिए शरीर
और आत्मा का अंतर जानना आवश्यक है. एक स्वस्थ आत्मा ही शरीर को सुंदर स्वरुप देती
है.अगर उसमे कपटता,नफरत,द्वेष,दुश्मनी,लालच,समाहित हो.तो उसे कैसे निखार सकते है.फिल्म
संगीत हमेशा से ही लोक संगीत से प्रेरित रहा है.जिसमें विशेषकर राजस्थान, बंगाल, गोवा,गुजरात
महाराष्ट्र का संगीत प्रमुख है.पर इन दिनों लोकसंगीत की आत्मा को भी धूमिल करने के
प्रयास होने लगे है. लोकसंगीत के नाम पे अश्लील स्वरुप की प्रचुरता है, संगीत की
कला को शांति और प्रसन्नता प्रदान करने का माध्यम मानते है.इसलिए उसे उसके
वास्तविक रूप में ही व्यक्त होने देना हम सभी का फ़र्ज़ बनता है. जिससे समाज में
फैली असामाजिक मानसिकता को बदला जा सके. जो समाज और देश के लिए भी कारगर है.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कुन्दन लाल सहगल और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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