Thursday, December 5, 2013

क्या हमारे पास विरासत के लिए ज़रा सी जगह भी नहीं है?


 हमारे देश की परम्परा है कि हम सदैव अपनी धरोहर को संजोकर रखने की कोशिश करते हैं. यही कारण है कि आज पूरे विश्व में हम अपनी प्राचीन धरोहरों की वजह से लोकप्रिय है.एक ओर तो हम देश के विकास को चहुँओर हुई उन्नति से जोड़ते है और देश को २१वीं सदी का शक्तिशाली देश बनाने की ओर अग्रसर है, वही दूसरी ओर देश की रक्षा में हमेशा अग्रणी रहे संसाधनों को वक़्त की गर्त में ढकेलने का विचार कर रहे है. मैं बात कर रही हूँ अपने समय के एक मात्र युद्धपोत आईएनएस विक्रांत की जो आज एक बीती हुई कहानी बनने जा रहा है. ३६ वर्षों की अद्वितीय सेवा प्रदान कर ३१ जनवरी १९९७ को सेवामुक्त(डीकमीशंड) इस युद्धपोत विक्रांत को स्थायी युद्धपोत संग्रहालय में तब्दील किए जाने की अनथक कोशिशे सरकारी लापरवाही के कारण परवान नहीं चढ सकी हैं और  15 वर्षों की नाकामयाब कोशिशों के बाद यह फैसला लिया गया है कि भारतीय नौसेना के देश के इस प्रथम विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत को नीलाम कर दिया जाए.फिलहाल इसके लिए १४ दिसम्बर की तारीख तय की गयी है. सबसे दुखद पहलू यह है कि नौसेना दिवस से ठीक एक दिन पहले ही आईएनएस विक्रांत की नीलामी की घोषणा की गई।

            आईएनएस विक्रांत भारत का पहला विमानवाहक पोत (एयरक्राफ्ट कैरियर) था. जिसका आदर्श वाक्य -"जयेम सम युधि स्प्रदाह" ऋग्वेद से लिया गया था इसका अर्थ है कि मैं उन्हें परास्त करने की क्षमता रखता हूँ जो मुझसे लड़ाई करना चाहे. इस जहाज को 1957 में ग्रेट ब्रिटेन से ख़रीदा गया था.जो 4 मार्च 1961 को यूनाइटेड किंगडम में भारतीय उच्चायुक्त विजयलक्ष्मी पंडित द्वारा नौसेना में शामिल(कमीशंड) किया गया था. विक्रांत का अर्थ है " साहसी"और अपने नाम के अनुरूप यह जहाज २६२ मीटर लम्बा और ६० मीटर चौड़ा है. ४० हज़ार मीट्रिक टन भार वाले इस जहाज पर मिग २९ के, तेजस मार्क २, वेस्टलैंड सी किंग हेलिकॉप्टर अठखेलियाँ भरते थे. आईएनएस विक्रांत ने १९७१ में बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए चलाये अभियान में अपना भरपूर जलवा दिखाया. विक्रांत ने १९७१ के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 

Wednesday, November 13, 2013

भगवान की भक्ति में भक्तों की अनदेखी...........


हम सभी इन दिनों जिस बात की चर्चा ज्यादा कर रहे है. वो है क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर की टेस्ट क्रिकेट से विदाई. वो भी उनके २००वे टेस्ट के साथ, इस विदाई को यादगार बनाने के प्रयास में मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन अपनी पूरी ताक़त लगा रहे है. जैसी विदाई कोलकाता में पहले टेस्ट के बाद बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन ने दी उस से भी शानदार हो मुंबई की विदाई.क्योंकि मुंबई सचिन का गृहनगर है.पर इन सबके बीच बीसीसीआई और एमसीए कुछ भूल रहे है.दरअसल वो उन प्रशंसकों को भूल रहे है. जिनकी दुआओं की बदौलत आज सचिन इस मुकाम पर है.क्योंकि बीसीसीआई और एमसीए ने सभी जानीमानी हस्तियों और क्लबों,उद्योगजगत सिनेमाजगत सभी को इस मौके पर निमंत्रित तो कर लिया लेकिन वानखेड़े स्टेडियम की ४०हज़ार की क्षमता के बावजूद दर्शकों तक केवल लगभग तीन हज़ार टिकट ही पहुँचने दी. वो भी स्टेडियम की खिड़की पर तो नाममात्र की टिकट ही रखी. इस से ज्यादा बुरा हाल तो इंटरनेट से टिकट पाने वालों का हुआ. जहाँ आधे घंटे में ही वेबसाइट जाम हो गई...... प्रशंसकों के हाथ केवल मायूसी लगी. क्या इस मायूसी को कम करने का काम एमसीए के पदाधिकारियों को नहीं करना चाहिए. एमसीए का यह बर्ताव बेहद निंदनीय और शर्मनाक है. एक ओर प्रशंसक मायूस थे दूसरी ओर एक शानदार समारोह आयोजित कर एमसीए सचिन के सम्मान समारोह में मशगुल थी. जो उनकी प्रशंसकों के प्रति उनकी बेपरवाही का सबूत है.अब देखना दिलचस्प होगा कि क्रिकेट के भगवान् के प्रति भक्ति करने वाले मुंबई कि अति प्राचीन पहचान डिब्बेवालों की किस्मत स्टेडियम की टिकट पाने को लेकर कितना उनका कितना साथ देती है. क्या वो उन भाग्यशालियों में अपना नाम दर्ज करवा पाते है. यह देखना वाकई एक रोचक होगा .............

Monday, September 30, 2013

भारत एक रोचक इतिहास.......का साक्षी ..................



प्राचीन भारत की सीमाएं विश्व में दूर-दूर तक फैली हुई थीं। भारत ने राजनैतिक आक्रमण तो कहीं नहीं किए परंतु सांस्कृतिक दिग्विजय अभियान के लिए भारतीय मनीषी विश्वभर में गए। शायद इसीलिए भारतीय संस्कृति और सभ्यता के चिन्ह विश्व के लगभग सभी देशों में मिलते हैं।
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यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से भारत का विस्तार ईरान से लेकर बर्मा तक रहा था। भारत ने संभवत विश्व में सबसे अधिक सांस्कृतिक और राजनैतिक आक्रमणों का सामना किया है। इन आक्रमणों के बावजूद भारतीय संस्कृति आज भी मौजूद है। लेकिन इन आक्रमणों के कारण भारत की सीमाएं सिकुड़ती गईं। सीमाओं के इस संकुचन का संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है।
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ईरान – ईरान में आर्य संस्कृति का उद्भव 2000 ई. पू. उस वक्त हुआ जब ब्लूचिस्तान के मार्ग से आर्य ईरान पहुंचे और अपनी सभ्यता व संस्कृति का प्रचार वहां किया। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम आर्याना पड़ा। 644 ई. में अरबों ने ईरान पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।
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कम्बोडिया – प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्दचीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की।
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वियतनाम – वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। दूसरी शताब्दी में स्थापित चम्पा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चम्पा के महान हिन्दू राज्य का अन्त हुआ।
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मलेशिया – प्रथम शताब्दी में साहसी भारतीयों ने मलेशिया पहुंचकर वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित करवाया। कालान्तर में मलेशिया में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन हो गया। 1948 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो यह सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बना।
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इण्डोनेशिया – इण्डोनिशिया किसी समय में भारत का एक सम्पन्न राज्य था। आज इण्डोनेशिया में बाली द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीपों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं। फिर भी हिन्दू देवी-देवताओं से यहां का जनमानस आज भी परंपराओं के माधयम से जुड़ा है।
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फिलीपींस – फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।
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अफगानिस्तान – अफगानिस्तान 350 इ.पू. तक भारत का एक अंग था। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद अफगानिस्तान धीरे-धीरे राजनीतिक और बाद में सांस्कृतिक रूप से भारत से अलग हो गया।
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नेपाल – विश्व का एक मात्र हिन्दू राज्य है, जिसका एकीकरण गोरखा राजा ने 1769 ई. में किया था। पूर्व में यह प्राय: भारतीय राज्यों का ही अंग रहा।
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भूटान – प्राचीन काल में भूटान भद्र देश के नाम से जाना जाता था। 8 अगस्त 1949 में भारत-भूटान संधि हुई जिससे स्वतंत्र प्रभुता सम्पन्न भूटान की पहचान बनी।
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तिब्बत – तिब्बत का उल्लेख हमारे ग्रन्थों में त्रिविष्टप के नाम से आता है। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार चौथी शताब्दी में शुरू हुआ। तिब्बत प्राचीन भारत के सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में था। भारतीय शासकों की अदूरदर्शिता के कारण चीन ने 1957 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया।
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श्रीलंका – श्रीलंका का प्राचीन नाम ताम्रपर्णी था। श्रीलंका भारत का प्रमुख अंग था। 1505 में पुर्तगाली, 1606 में डच और 1795 में अंग्रेजों ने लंका पर अधिकार किया। 1935 ई. में अंग्रेजों ने लंका को भारत से अलग कर दिया।
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म्यांमार (बर्मा) – अराकान की अनुश्रुतियों के अनुसार यहां का प्रथम राजा वाराणसी का एक राजकुमार था। 1852 में अंग्रेजों का बर्मा पर अधिकार हो गया। 1937 में भारत से इसे अलग कर दिया गया।
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पाकिस्तान - 15 अगस्त, 1947 के पहले पाकिस्तान भारत का एक अंग था।
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बांग्लादेश – बांग्लादेश भी 15 अगस्त 1947 के पहले भारत का अंग था। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान के रूप में यह भारत से अलग हो गया। 1971 में यह पाकिस्तान से भी अलग हो गया।

Sunday, September 22, 2013

डेंगू के अचूक ब्रहमास्त्र............



डेंगू का उपचार: आजकल डेंगू एक बड़ी समस्या के तौर पर उभरा है, पुरे भारत में ये बड़ी तेजी से बढ़ता ही जा रहा है जिससे कई लोगों की जान जा रही है l
यह एक ऐसा वायरल रोग है जिसका माडर्न मेडिकल चिकित्सा पद्धति में कोई इलाज नहीं है परन्तु आयुर्वेद में इसका इलाज है और वो इतना सरल और सस्ता है कि उसे कोई भी कर सकता है l
तीव्र ज्वर, सर में तेज़ दर्द, आँखों के पीछे दर्द होना, उल्टियाँ लगना, त्वचा का सुखना तथा खून के प्लेटलेट की मात्रा का तेज़ी से कम होना डेंगू के कुछ लक्षण हैं जिनका यदि समय रहते इलाज न किया जाए तो रोगी की मृत्यु भी सकती है l


यदि आपके आस-पास किसी को यह रोग हुआ हो और खून में प्लेटलेट की संख्या कम होती जा रही हो तो चित्र में दिखाई गयी चार चीज़ें रोगी को दें :
१) अनार जूस
२) गेहूं घास रस
३) पपीते के पत्तों का रस
४) गिलोय/अमृता/अमरबेल सत्व
अनार जूस तथा गेहूं घास रस नया खून बनाने तथा रोगी की रोग से लड़ने की शक्ति प्रदान करने के लिए है, अनार जूस आसानी से उपलब्ध है यदि गेहूं घास रस ना मिले तो रोगी को सेब का रस भी दिया जा सकता है l
- पपीते के पत्तों का रस सबसे महत्वपूर्ण है, पपीते का पेड़ आसानी से मिल जाता है उसकी ताज़ी पत्तियों का रस निकाल कर मरीज़ को दिन में २ से ३ बार दें , एक दिन की खुराक के बाद ही प्लेटलेट की संख्या बढ़ने लगेगी l
- गिलोय की बेल का सत्व मरीज़ को दिन में २-३ बार दें, इससे खून में प्लेटलेट की संख्या बढती है, रोग से लड़ने की शक्ति बढती है तथा कई रोगों का नाश होता है l यदि गिलोय की बेल आपको ना मिले तो किसी भी नजदीकी पतंजली चिकित्सालय में जाकर "गिलोय घनवटी" ले आयें जिसकी एक एक गोली रोगी को दिन में 3 बार दें l

यदि बुखार १ दिन से ज्यादा रहे तो खून की जांच अवश्य करवा लें l
यदि रोगी बार बार उलटी करे तो सेब के रस में थोडा नीम्बू मिला कर रोगी को दें, उल्टियाँ बंद हो जाएंगी l
ये रोगी को अंग्रेजी दवाइयां दी जा रही है तब भी यह चीज़ें रोगी को बिना किसी डर के दी जा सकती हैं l
डेंगू जितना जल्दी पकड़ में आये उतना जल्दी उपचार


Thursday, September 5, 2013

धर्म गुरुओं का अधर्म की ओर पग


आजकल हर न्यूज़ चैनल में हमारे देश के आध्यात्मिक गुरु आशाराम जी के कारनामों की चर्चा है.असल में आसाराम जैसे किसी आध्यात्मिक गुरु पर संगीन आरोप लगे है. वैसे यह कोई नया समाचार नहीं है इस तरह के कई आरोप कुछ प्रसिद्ध आध्यात्मिक धर्म गुरुओं पर लग चुके है जिनमे स्वामी नित्यानंद राधे माँ,निर्मल बाबा साध्वी प्रज्ञा जैसे गुरु इस में शुमार है.वैसे अभी तक आशाराम पर लगा नाबालिग से यौन शोषण आरोप ज्यादा गंभीर और शर्मनाक है. आशाराम अनेक बार अपने आश्रम में होने वाली अमानवीय घटनाओं के बाद भी कानून के शिकंजे से बच जाते थे. आपको याद होगा इससे पहले आशाराम के आश्रम में दो बच्चों की संदिग्ध हालत में मौत हुए थी तब भी आशाराम ने अपने राजनीतिक रसूख का उपयोग कर के कानून को ठेंगा दिखाया था.इसके अलावा अनेक बार गैरकानूनी ढंग से जमीन हडप कर आश्रम के निर्माण के तो पता नहीं कितने केस उन पर चल रहे है.अभी १५ सितम्बर तक उन्हें यौन शोषण के आरोप में जेल हवा खानी है और इस बार उनकी जेल यात्रा जल्द समाप्त होती नहीं दिख रही . अब शायद उनके पुराने कारनामों का चिटठा उन्हें इस बार कई महीनों के लिए कानून के गिरफ्त में रखे. वैसे जिसका बिता हुआ वक़्त ही धोखे और अपराधों की लम्बी श्रंखला हो. वो कितनी भी कोशिश कर ले अपने उस गुण को नहीं छोड़ नहीं पता.ये ही आशाराम के साथ भी है. उनने अपने जीवन के शुरुआती दिनों में भी धोखाधड़ी के नए आयामों को ही अपना संगी बनाया बाद में अचानक धर्म गुरु के तौर पर प्रकट हुए.अगर इस बार भी आशाराम जी को जल्दी कानूनी शिकंजे से छुटकारा मिल गया तो सारे देश वासियों का कानून के और न्यायालय के ऊपर से विश्वास ख़त्म हो जायेगा. हम सब की यही अपेक्षा है कि इन भ्रष्ट और बदनाम धार्मिक और आध्यात्मिक गुरुओं, नेताओं पर हमारी सरकार को सख्त कानून की धाराओं के तहत करवाई करना चाहिए जो उनकी निष्पक्ष निर्णयों और उसके कार्यान्वयन को प्रदर्शित करे................ .

Wednesday, September 4, 2013

नक्सलवाद से लोहा लेने तत्पर महिला कमांडो..............


केंद्र सरकार देश में महिला नक्सलियों की बढ़ती गतिविधियों से निपटने के लिए बड़ी संख्या में महिला कमांडो को तैनात करने जा रही है। केंद्र की इस नई पहल से महिला नक्सली और महिला कमांडो आमने-सामने होंगी।

आधिकारिक जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में महिला कमांडो तैनात करने का निर्णय लिया है। आधुनिक हथियारों से लैस महिला कमांडो बारिश के मौसम के बाद नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात की जाएंगी।

गौरतलब है कि गत 25 मई को बस्तर जिले की झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हुए नक्सली हमले में पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और प्रतिपक्ष के नेता महेंद्र कर्मा सहित 31 कांग्रेसी कार्यकर्ता, पुलिस जवान व आम नागरिक शहीद हो गए थे। जांच में पता चला कि हमलावरों में कम उम्र की नक्सली युवतियां बड़ी संख्या में शामिल थीं। वे आधुनिक हथियारों और संचार साधनों से लैस थीं। समझा जाता है कि इस रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार इन इलाकों में महिला कमांडो की तैनाती करने जा रही है।

भगवान के लिए खेल से खिलवाड़......................


आजकल सभी ओर क्रिकेट के भगवान के २००वे टेस्ट मैच खेलने की चर्चा है. जिसे बीसीसीआई भी बड़े आयोजन के तोर पर ले रही हैं.इसलिए उनके प्रमुखों ने वेस्ट इंडीज का दौरा तक बनवा दिया और साउथ अफ्रीका के पहले से तयशुदा सीरीज को कचरे के डब्बे में डाल दिया. और अपनी पुरानी लड़ाई का बदला भी ले लिया..आप सोचेंगे कि क्रिकेट में हमारा तो साउथ अफ्रीका से तो कोई झगड़ा नहीं है, तो फिर किस लड़ाई का बदला लिया यह लड़ाई है बीसीसीआई चीफ ऍन श्रीनिवासन और साउथ अफ्रीका बोर्ड के प्रमुख अरुण लोगार्ट के बीच वो भी तब की जब लोगार्ट आईसीसी में प्रमुख पद पर थे. तब उनके कुछ फैसलों के कारण यह विवाद शुरू हुआ जिसका खामियाज़ा अब साउथ अफ़्रीकी बोर्ड को भोगना होगा.और एक बड़ा कारण है बीसीसीआई चाहती है कि सचिन तेंदुलकर अपना २००वे टेस्ट मैच के साथ अगर टेस्ट मैच को भी अलविदा कहना चाहते है, तो उनकी शानदार विदाई उन्हें उनके होम ग्राउंड वानखेड़े में दी जाये.वो भी पहले के सभी कायक्रमों को बदल कर, आपको नहीं लगता कि बीसीसीआई को अपने निर्णय पर दोबारा विचार करना चाहिए. क्या आप इसे बीसीसीआई का तानाशाही पूर्ण रवैया नहीं कहेंगे? एक खिलाडी के लिए मैदान का महत्व होना चाहिए या खेल का ज्यादा महत्व होना चाहिए .........मेरे विचार से यह बर्ताव बेहद शर्मनाक है............ .

Saturday, April 27, 2013

नेताओं के बच्चे क्यों नहीं जाते सरहद पर रक्षा के लिए


सूचनार्थ: आपकी सुरंजनी के इस लेख को 'सादरब्लागस्ते' द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में राजधानी की विख्यात संस्था "शोभना वेलफेयर सोसाइटी' ने  ब्लाग रत्न के सम्मान से नवाजा है.आप सभी पाठकों के लिए पेश है यह पुरस्कृत आलेख...
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देश में इन दिनों सेना और सरकार के सम्बन्ध संभवतः आजादी के बाद सबसे ज्यादा विवादित हैं.सरकार में सेना के प्रति अविश्वास बढ़ रहा है तो सेना भी नेताओं को कुछ नहीं समझ रही.ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या वजह है कि सेना और सत्ता प्रतिष्ठान के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन क्यों बढती जा रही है.दरअसल इसका कारण देश के नेताओं का "हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के और" कहावत जैसा व्यवहार है.वे सेना,शहादत,देशप्रेम,राष्ट्रभक्ति और बहादुरी के जज्बे के साथ मुल्क पर मर मिटने को लेकर बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं परन्तु जब बात खुद पर आती है तो बचने के रास्ते भी निकाल लेते हैं.देश के नेताओं का कुछ ऐसा ही हाल सेना में अपने बच्चों को भेजने को लेकर है.राष्ट्रप्रेम की रोटी खाने वाली भाजपा से लेकर शहीदों पर राजनीति करने वाली कांग्रेस के किसी भी आला नेता के बच्चे सेना में नहीं है.ये दोनों पार्टियां ही नहीं बल्कि किसी भी राजनीतिक दल के बड़े नेता ने अपने बच्चों को सैन्य सेवा में भेजने की जरुरत नहीं समझी.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के बच्चे किसी परिचय के मोहताज नहीं है.उनके पुत्र और पार्टी के युवराज राहुल गाँधी का तो लाल कालीन बिछाकर प्रधानमंत्री पद के लिए इंतज़ार किया जा रहा है.उन्होंने देश-विदेश में पढ़ने के बाद भी देश के लिए सरहद पर जाकर मर-मिटने की बजाये राजनीति का 'पैतृक' रास्ता चुना. उनकी बहन और गाँधी परिवार का लोकप्रिय चेहरा प्रियंका अपने परिवार और कभी-कभी वक्त निकालकर कांग्रेस को संवारने में ज्यादा व्यस्त हैं. भाजपा के 'आलाकमान' लालकृष्ण आडवाणी भी इस मामले में सोनिया के ही हम राह हैं.उनकी बिटिया प्रतिभा आडवाणी ने सेना की पथरीली राह की बजाए पिता के राजनीतिक साये में रहकर टीवी के जरिए नाम कमाने का आसान रास्ता चुना.संसद में गंभीर बहस से ज्यादा अपने मसखरेपन के लिए चर्चित लालू प्रसाद ने तो आधा दर्जन से अधिक बच्चों के बाद भी किसी को सैन्य सेवा में भेजने की जरुरत नहीं समझी.हाँ,अपने बच्चों के 'मीसा' जैसे तत्कालिक महत्त्व के नाम रखकर इन नामों से लोकप्रियता कमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लालू ही क्यों देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी,गृह मंत्री पी चिदम्बरम,लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज,राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली,भाजपा के मुखिया नितिन गडकरी,कृषि मंत्री शरद पवार, केन्द्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल,फारुख अब्दुल्ला,अजीत सिंह,कमलनाथ,विलासराव देशमुख,समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव,शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे सहित तमाम नेता ऐसे हैं जिनके बच्चे सेना से तो दूर हैं पर राजनीति से दूर नहीं है.जहाँ शरद पवार,फारुख अब्दुल्ला,अजीत सिंह जैसे नेताओं ने खुद अपने बच्चों के लिए राजनीति का मैदान तैयार किया और चांदी की थाली में मनमाने पद उन्हें सौपने में देरी नहीं की, वहीँ प्रणब मुखर्जी,कमलनाथ और चिदम्बरम जैसे नेताओं ने अपने बच्चों के लिए व्यापार-व्यवसाय की सुरक्षित राह चुनी.पिता की विशाल राजनीतिक छत्रछाया में इनके लिए व्यवसाय के तमाम नियम-कानून बौने साबित हो रहे हैं.बाल ठाकरे ने तो खुद की 'सेना' बनाकर हुकुम चलाना और राज एवं उद्धव ठाकरे को सुरक्षित विरासत सौपने की तैयारी सालों पहले कर ली थी.सेना में अपने बच्चों को भेजने के सवाल पर ज्यादातर नेता कन्नी काटने की कोशिश करते हैं या फिर यह कहकर बात को टाल देते हैं कि वे अपने बच्चों के कैरियर सम्बन्धी फैसलों में दखल नहीं देते. यदि वे सेना में जाना चाहते तो हम उन्हें रोकते भी नहीं.
मध्यप्रदेश में 'राजा साहब' और केन्द्र में बयानवीर माने जाने वाले दिग्विजय सिंह,शाही सिंधिया परिवार,सैनिकों की संख्या और सैन्य परंपरा के लिए विख्यात पंजाब का सत्तारूढ़ बादल परिवार,हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्रसिंह हुड्डा,छत्तीसगढ़ के मुखिया रमन सिंह,हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल जैसे सैकड़ों नाम हैं जिन्होंने हमेशा दुहाई तो देश के लिए बलिदान की दी लेकिन वक्त पड़ने पर अपने बच्चों को फिल्म,राजनीति,व्यवसाय जैसे आसान धंधों में उतारना उचित समझा.खास बार यह है कि इन राज्यों से सर्वाधिक संख्या में युवा सेना में जाते हैं.इसका एक कारण यह भी है कि कारपोरेट जगत में मिल रहे वेतन के सामने सेना की सूखी तनख्वाह का क्या मोल है.फिर इतने सालों के परिश्रम से राजनीति में जो मुकाम हासिल किया है उसे सँभालने के लिए भी कोई चाहिए? अब अगर बेटा ही सेना में चला गया तो नेता जी की गद्दी कौन संभालेगा.
शायद इस बात को कम ही लोग जानते होंगे कि ब्रिटेन में राज परिवार की हर पीढ़ी के एक सदस्य का सेना में जाना अनिवार्य है.वहां राज परिवार में सेना के प्रति अपने उत्तरदायित्व निभाने का जज्बा इतना ज्यादा है कि राजकुमार और भावी राजा प्रिंस हैरी तो अनिवार्य सेवा के बाद भी सेना में ही रहना चाहते हैं.इसीतरह इजराइल में तो हर परिवार में युवाओं के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य है लेकिन हमारे देश में "पर उपदेश कुशल बहुतेरे"को अपनाने वाले नेता अपने बच्चों की जान किसी जोखिम में नहीं डालना चाहते परन्तु आम लोगों को सेना से जुड़ने का ज्ञान देने में पीछे नहीं रहते.एक युवा नेता इस बारे में कहना है कि 'देश-वेश के प्रति प्रेम किताबों में ही अच्छा लगता है.अरे जब घर बैठे ही लाखों मिल रहे हैं तो सीमा पर जाकर दुश्मन की गोली खाने की क्या जरुरत है."
नेताओं की बेरुखी के कारण आज आलम यह है कि सेना को उपयुक्त नौजवान नहीं मिल रहे हैं. हाल ही में कराये गए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि देश में नौकरी के लिए युवाओं की प्राथमिकता में सेना का स्थान सातवां है.इसका कारण साफ़ है जब उन्हें दूसरी नौकरियों में बिना किसी जोखिम के ज्यादा वेतन मिल रहा है तो वे सेना में जाकर ख़तरा क्यों मोल लेंगे?युवाओं के बदलते झुकाव के कारण भारतीय सैन्य अकादमी(आईएमए)में 150 तो राष्ट्रीय रक्षा अकादमी(एनडीए) सहित देश के सभी प्रमुख रक्षा संस्थानों में 100 से अधिक सीटे खाली पड़ी हैं.किसी समय इन संस्थानों में प्रवेश पाना पूरे परिवार और उस गाँव तक के लिए गौरव की बात मानी जाती थी लेकिन अब स्थिति यह है कि भारतीय सेना में अधिकारी के 11 हजार से ज्यादा पद खाली हैं.वायुसेना में डेढ़ हजार और नौसेना में 1400 से अधिक पद खाली हैं.इसका सीधा असर देश की सुरक्षा और सैन्य तैयारियों पर पड़ रहा है

सुरंजनी पर आपकी राय