Tuesday, April 10, 2018

ना गीतों में अब आत्मा है ,ना ही संगीत में माधुर्य


गीत-संगीत जीवन में एक नयी उर्जा और स्फूर्ति का माध्यम है.संगीत ने हमारे जीवन में एक अद्भुत स्थान बना लिया है. ‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...’,’एक प्यार का नगमा है..’,‘आज से तेरी सारी गलियाँ मेरी..’,‘बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक,मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंगलिश्तानी,इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल,मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, ए मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी,मेरी प्यारी अम्मी जो है,जैसे अनेक सुरमय गीत है.जो हमारे दिल में किसी ना किसी तरह के भाव को जगाते है,चाहे फिर वो देशभक्ति, प्यार, अपनत्व, हास्य,करुणा का भाव हो. आज धीरे-धीरे गानों के लेखन से लेकर संगीत निर्माण तक में क्रांति का दौर देखा जा रहा है.जहाँ पहले एक गाने को बनाने में कई महीनों का वक़्त लगता था,सारा काम मानवशक्ति से ही सम्भव था,अब कम्प्यूटरीकरण की वजह से आसान हो गया है,जहाँ पहले मानवशक्ति और संसाधनों दोनों के प्रयोग के बाद भी समय काफी लगता था,वही आज गाने तैयार करने में दिनभर भी नहीं लगता. गानों में एक माधुर्य और गहराई हो तो वो कही ना कही दिल में उतर जाता है.आज हम गानों के शब्दों से ज्यादा उनके फिल्मांकन को महत्व देने लगे है,क्योंकि आज गाने के प्रचलन में बदलाव की बयार महसूस की जा सकती है.हम फिल्म संगीत में स्वर्णिम रेट्रो युग की तरह गानों में एक अद्भुत अनुभूति की कमी पाते है,अब वो लेखनी भी नही,जो मानवीय संवेदनाओं से जुड़ाव की अभिव्यक्ति करती थी. हमारे समाज का आइना कहे जाने वाले भारतीय चलचित्र में वो अपनेपन और आत्मीय भाव जो पहले था.वो अब ना कहानियों में रहा ना लिरिक्स में, शब्दों का महत्व समझे बिना ही गानों की रचना हो रही.धीरे-धीरे अश्लील गानों का सृजन होने लगा.उनमें हमने सारी सीमाओं को पार कर दिया, या फिर पुराने प्रसिद्ध गानों को रीमिक्स करके नये रूप में पेश करने की होड़ सी लग गयी है.दोनों ही स्थितियों में गाने की मधुरता और सुखद एहसास से छेड़छाड़ हुई.क्या इस तरह हम अपने संगीत प्रेम को   प्रकट कर रहे? वैसे गाने को बनाने में जो सबसे जरूरी है और जो उसकी आत्मा है वे शब्द है.शब्द ही गाने को सबके बीच प्रसिद्धि दिलाते है,लेकिन जब उनमें अश्लीलता  का तड़का लगे तो प्रसिद्धि तो है लेकिन स्थायित्व और दिल पर असर छोड़ने की कमी रहेगी,अगर हम अपने अब के माहौल में इस तरह का संगीत सुनते है तो वो हमें सरसता के स्थान पर कानफोडू दौर की ओर ले जाता है,वो गाने हमारे विचारों,सोच पर अपना असर छोड़कर अपने संगीत के माधुर्य से संगीत के अत्याचार की ओर ले जा रहे हैं . क्या हमें इस बात की गंभीरता को समझने की जरूरत नहीं है? मेरे विचार से इस बात पर वाकई गंभीरता से सोचने का वक़्त आ गया. क्योंकि हमारी युवा पीढ़ी और बच्चों के बीच इस अश्लील गानों का अपना एक आकर्षण देखा जा सकता है, विशेषकर उनके फिल्मांकन पर. कुछ यही हाल फिल्मों का है क्योंकि  आज फिल्मों में कहानियों के नाम पर सार्थक प्रेरणास्रोत और शिक्षाप्रद के स्थान पर आधारहीन कहानियों की भरमार है. समाज में इस प्रचलन ने एक अलग वर्ग को उभरने का मौका दिया है. वो माहौल आज हर उम्र के व्यवहार में समझ आ रहा है.आसपास का परिवेश भी विषाक्त रूप ले रहा है,जिसने व्यक्ति के आचार विचार को पूर्णतः संकुचित कर दिया है. उनके लिए संगीत मतलब शोरगुल है. संगीतकारों गीतकारों का पूरा ध्यान अब केवल मांग के अनुरूप शब्दों की ऐसी तुकबंदी गढ़ने पर है जो कम समय में आम लोगों की जुबान पर चढ़ जाए भले ही गीत के तौर पर उसका कोई अर्थ ना हो.मेरे विचार से उन्हें पुराने संगीतकारों और गीतकारों से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है.केवल पुराने धुनों का रिमिक्स कर देना कोई प्रेरक नही बल्कि उस तरह के भावना प्रधान गीतों को एक बार फिर चलन में लाना होगा ताकि गाने की आत्मा को हम संरक्षित कर पायेंगे. हमारे लिए शरीर और आत्मा का अंतर जानना आवश्यक है. एक स्वस्थ आत्मा ही शरीर को सुंदर स्वरुप देती है.अगर उसमे कपटता,नफरत,द्वेष,दुश्मनी,लालच,समाहित हो.तो उसे कैसे निखार सकते है.फिल्म संगीत हमेशा से ही लोक संगीत से प्रेरित रहा है.जिसमें विशेषकर राजस्थान, बंगाल, गोवा,गुजरात महाराष्ट्र का संगीत प्रमुख है.पर इन दिनों लोकसंगीत की आत्मा को भी धूमिल करने के प्रयास होने लगे है. लोकसंगीत के नाम पे अश्लील स्वरुप की प्रचुरता है, संगीत की कला को शांति और प्रसन्नता प्रदान करने का माध्यम मानते है.इसलिए उसे उसके वास्तविक रूप में ही व्यक्त होने देना हम सभी का फ़र्ज़ बनता है. जिससे समाज में फैली असामाजिक मानसिकता को बदला जा सके. जो समाज और देश के लिए भी कारगर है.  


















































































 

Wednesday, February 28, 2018

रिश्तों से नहीं, रंगों से खेले होली




होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते है,होली आई रे कन्हाई,जा रे हट नटखट ना खोल मेरा घूँघट,रंग बरसे भीगे चुनर वाली इन जैसे अनेक गीतों ने हमेशा हमारे मन को उत्साह और उमंग की नयी उर्जा से ओतप्रोत किया है. आज भी ये गाने होली के त्यौहार की मस्ती को दोगुना करते है, पर अब इस त्यौहार में आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति का बोलबाला साफ़ देखा जा सकता है. कुछ साल तक पहले हमारे घरों में संयुक्त परिवार की अवधारणा सार्थक होती थी.जिस कारण हर त्यौहार का उत्साह भी हटके होता था. परिवार में महीनों पहले से त्यौहार की तैयारियां प्रारंभ हो जाती थी, मिठाइयाँ और पकवानों की खुशबू हमें एक अलग ही एहसास कराती थी, हम त्यौहार के रोज ईश्वर को मिठाई और पकवान का भोग लगाके रंग गुलाल चढ़ाकर साथ ही अपने बड़ों के चरणों में लगा के आशीर्वाद के साथ एक दूसरे को लगाते थे और पकवान मिठाई का अपने पूरे परिवार, मित्रों,रिश्तेदारों के साथ आनंद उठाते थे. आज इस माहौल में हम सभी इस त्यौहार को मनाते तो है, पर हमारे लिए अब वो महत्व नहीं है जो हुआ करता था क्योंकि अब हम अपने जीवन की भागमभाग में लगे हुए हम अपने दोस्तों परिवार के सदस्यों के बीच समय बिताना क्या होता है भूलते जा रहे. त्यौहार  भी उस उत्साह के साथ नही मनाते,केवल रस्म अदायगी मात्र होती है. क्या हमने कभी सोचा त्यौहार का उत्साह आज महज औपचरिकता क्यों बन गया?  हमें इस ओर ध्यान देना होगा की क्यों हमारे परिवारों में संयुक्तता ना होकर एकल की इबारत पढ़ी जाने लगी है जो हम सबको अपनेपन और आत्मीयता के सागर से दूर कर एकल जीवन रुपी कुँए का मेंढक बना रहा है और हम इसे अपनी उन्नति और उचाईयों का शिखर मान रहे है. परिवार को दरकिनार करके सफलता का मापदंड तय करने में केवल स्वार्थ का मोल ज्यादा है,त्योहारों पर भी हम अपनी ऐसी ही कुछ वजहों के अनुसार इसका इस्तेमाल स्वार्थपरकता के लिए करते है. वास्तविकता यह है की त्यौहार की परम्पराओं ने शुरुआत से ही हमें एकजुटता और मिलनसारिता का पाठ पढ़ाया गया था. वो आज बीती बात हो गयी है. आज हम अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को तिरस्कृत भाव से देखते है और पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते हुए गर्वित होते है. शायद यही कारण है की होली जैसा सार्वजनिक मेलमिलाप का त्यौहार भी अब केवल सोशल मीडिया तक सीमित हो गया है. हम अब आपस में मिल जुलकर पर्व मनाने जैसे सामाजिक शिष्टाचारों तथा रिवाजों को दकियानूसी कदम कहने से भी नही हिचकिचाते. अगर कोई आज भी इस सामाजिक परंपरा को जीवित रखे है तो तो वो हमारी नजर में अनपढ़ और बेकार है. आज अगर रंगों के त्यौहार का  हमारे जीवन में रस्म जैसा भाव रह गया है, तो फिर जीवन में रंगों की वास्तविकता को लुप्तप्राय मान लेना अतिश्योक्ति नही है. वैसे रंगों के बिना क्या सुंदर जीवन की कल्पना सार्थक हो सकती है. नही न, तो फिर हमें रंगों को फिर से जीवन में लाने के प्रयास करना चाहिए,वो केवल त्योहारों के माध्यम से नही बल्कि अपनत्व की भावना को समाज में फैलाकर ही सम्भव है. जीवन जीना भी रंगों का प्रतिबिम्ब हैं. हँसना,सहयोग,मेलमिलाप,त्याग,समर्पण,रोना,धैर्य. सुख-दुःख और ख़ुशी ये सभी जीवन के अलग अलग रंग ही तो हैं जो हमारी जिन्दगी को इन्द्रधनुषी बनाते हैं.
आज वक्त का तकाजा है की आपसी सामंजस्य और सहयोग द्वारा परिवेश को बदलने के प्रयास होने चाहिए वर्ना त्योहारों के दौरान प्यार और अपनत्व की भाव के जगह नफरत,प्रतिस्पर्धा,कुंठित सोच की अधिकता बढती जाएगी और हम समाज के नाम एक एक परिवार या फिर एक व्यक्ति तक सिमटकर रह जायेंगे. त्यौहार को आपसी मनमुटाव दूर करने के माध्यम के तौर पर स्थान देना आवश्यक हो गया है. होली ने हमेशा से हमें रंगों के जीवन में महत्व का अभिप्राय समझाया है .होली का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत और परस्पर मेलमिलाप से जीने की जीवनशैली का पर्व है. उत्तर भारत में होली पर प्रचलित प्राचीन कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप नामक राजा का बेटा प्रहलाद था, जो भगवान विष्णु का परम भक्त था, वो सदैव भगवान की भक्ति में लीन रहता था लेकिन उसका पिता स्वयं को भगवान् मानता था और उसे उसे भक्ति करने से रोकता था. जब प्रहलाद लाख कोशिशों के बाद भी भगवान् की भक्ति से दूर नहीं हुआ तो  राजा ने अपनी बहन होलिका को बुलाया और उससे प्रहलाद को दंड देने को कहा .होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि भी उसे जला नही सकती इसलिए राजा ने होलिका को प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि के बीच में बैठने का आदेश दिया,राजा जानते थे होलिका को तो कुछ नही होगा राजकुमार को दंड मिलेगा क्योंकि उसे तो कोई बचाने वाला है नहीं. परन्तु भगवान तो अपने भक्त में वास करते है तो फिर उसे कैसे कोई कष्ट दे सकता है, इसलिए जिस होलिका को वरदान प्राप्त था वो उस आग में भस्म हो गयी. प्रहलाद सुरक्षित बाहर आ गया. तब से होली के पर्व के एक दिन पहले होलिका और प्रहलाद की मूर्ति की स्थापना और पूजा की रीत चली आ रही  है. रात्रि में होलिका दहन किया जाता है, अगले दिन होली में रंगों को एक दूसरे को लगाकर पुराने गिले शिकवे भुलाने का प्रयास किया जाता है. वैसे पूर्वोत्तर में होलिका दहन की परंपरा नहीं है बल्कि इस दो दिवसीय पर्व के पहले दिन ठाकुर जी अर्थात भगवान् के चरणों में रंग-गुलाल अर्पित किया जाता है और फिर दूसरे दिन आम लोग परस्पर रंग खेलते हैं. होली का ये त्यौहार केवल देश में नहीं विदेशों में भी अपनी छाप छोड़ रहा है. होली में रंग का महत्वपूर्ण स्थान है, पर कई बार लोग इस रंगों के त्यौहार को बेरंग बना देते है,वो रंग,पेंट में खुजली करने वाले पाउडर, तेजाब जैसे ज्वलनशील तत्व मिलाकर लगाते है जो लगने पर अपना बुरा प्रभाव डालता है, इस तरह कई बार रिश्तों और दोस्ती में हमेशा के लिए खटास आ जाती है जो जीवन भर के लिए इस त्यौहार से दूरी का कारण बन जाती है.
अब समय आ गया है की हम मेलमिलाप और सामाजिक सहयोग के इस पर्व को पुनः उत्साह से मनाएं और इस दौरान समाज में घर कर गयी तमाम बुराइयों को होलिका की तरह होली की अग्नि में भस्म कर दे और बस रंग-अबीर-गुलाल के जरिये एक साथ मिलकर अपने सारे गिले शिकवे भुलाकर इस त्यौहार के महत्त्व को प्रतिपादित करें.  

Wednesday, February 14, 2018

मनोरंजन के नाम पर क्या गंदगी परोस रहा है टीवी !!


                       
क्या बुआ-मामा जैसे रिश्ते हमारे परिवारों को जोड़ने की कड़ी है या फिर तोड़ने की ? क्या जोधाबाई-पद्मावती या फिर चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रेम आज की युवा पीढ़ी के भोंडे प्रेम की तरह था या फिर पांच साल के बच्चे को ‘एक आँख मारू तो....’नुमा गीत पर अपनी गायन या नृत्य प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए वैसे ही अश्लील हावभाव प्रदर्शित करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है? दरअसल ये तमाम सवाल आज टीवी पर चल रहे विभिन्न सीरियलों और कथित रियल्टी शो से उपजे हैं.
क्या आज का मनोरंजन वाकई इस श्रेणी का है, जो हमारे जीवन में कुछ अच्छे संस्कारों का बीज बो सके,शायद नहीं क्योंकि मनोरंजन के रूप में हमें जो परोसा जा रहा है,वो केवल वास्तविकता से परे और काल्पनिक संसार को तो बनाता है.कहीं ना कही आपसी रिश्तों में दूरियों का सबब भी बना है,आप सोचेंगे ऐसा क्यों तो उस से जुड़ा एक उदाहरण टीवी में दिखाए जा रहे धारावाहिकों में कॉमेडी के नाम पर भी फूहड़ता का परिचय मिलता है,वही पारिवारिक धारावाहिक में रिश्तों को काफी तोड़ मरोड़ के पेश किया जाता है,बल्कि रिश्तों में प्यार,अपनापन,सहयोग,सम्मान,विश्वास को दरकिनार करके अपमान,नफरत, धोखा का बोलबाला दिखाया जाता है,जिसने समाज में एक विकृत मानसिकता को जन्म दिया है, ये कहीं ना कहीं समाज के माहौल को बिगाड़ रहा है.इसी तरह रिएलिटी शोज़ ने प्रतिभाओं को आगे लाने के साथ-साथ बच्चों को उनकी उम्र से ज्यादा बड़ा बना दिया है,इन शोज़ में दो शो की चर्चा करना जरूरी समझती हूँ एक है सारेगामापा लिटिल चेम्प्स जिसने बच्चों को गाने के क्षेत्र में नाम कमाने और फिल्मों में गाने का मौका तो दिलाया है, पर उस कार्यक्रम में जजों और प्रतिभागियों के बीच चुनौती देने का एक राउंड शामिल किया था,जिसमें जजों ने प्रतिभागियों को अलग-अलग तरह के गाने की चुनौती दी, पर जो चुनौती प्रतिभागियों के द्वारा जजों के लिए रखी वो सम्मान का ह्रास ही कहा जाये,तो अतिश्योक्ति नहीं होगी उस श्रंखला में जजों की आधी मूँछ,बालों को कटवाना,शास्त्रीय गायकों को रैप जैसे गीत गाने बोलना, चूहों को मुंह से उठाना, उन्हें किसी भी धुन पर डांस करने को कहा जाता था,चेहरे पर कुछ भी लगा देना,उनकी इच्छा ना होते हुए भी उन्हें करने पर मजबूर होना पड़ता था,जैसे बच्चों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व को धूमिल करने के प्रयास ज्यादा थे.इसी तरह बिग बॉस में भी प्रतिभागियों द्वारा एक दूसरे पर व्यक्तिगत कटाक्ष,होस्ट के साथ उनका व्यवहार,इन सबसे ऊपर साजिशों की भरमार,बिग बॉस द्वारा दिए गये टास्क में भी आपसी द्वेष का पुट साफ़ दिखाई देता था,जैसे इस बार के सीजन में पड़ोसियों को एक दूसरे पर नज़र रखने जेसे टास्क लांच किए,साथ-साथ उनके बीच सारी मर्यादाएं तोड़ते हुए चुम्बन और उनके बीच डेटिंग जेसे टास्क से किस तरह के मनोरंजन की कल्पना की गयी,क्या इस तरह के शोज परिवार के साथ देखे जा सकते है,इनके अलावा कुछ ऐतिहासिक,धार्मिक धारावाहिक जो इस समय प्रसारित हो रहे है,उनमें जो भी दिखाया है, उसकी प्रमाणिकता और सत्यता कहाँ तक सही है,जैसे जोधा-अकबर,पोरस,पृथ्वी-वल्लभ,टीपू सुल्तान,महारानी लक्ष्मीबाई,शेरे-ए पंजाब महराजा रणजीत सिंह,चन्द्रकान्ता, पेशवा बाजीराव, चन्द्रगुप्त मौर्य,चित्तोड़ की रानी पद्मिनी,चाणक्य,मिर्ज़ा ग़ालिब,रज़िया सुल्तान,इसीतरह धार्मिक विषयों पर आधारित सीरियलों जैसे धर्मक्षेत्र,द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्,लवकुश, पदमावतारश्रीकृष्ण,संकट मोचन महाबली हनुमान,विष्णु पुराण, सिया के राम, महाकाली,सूर्यपुत्र कर्ण इत्यादि जैसे सीरियलों में जो भी कुछ प्रदर्शित किया जा रहा है वो ग्रंथों से भी परे प्रतीत होता है.
   प्राचीन समय से ही मानव जीवन में अनेक आवश्यक भाग है, जो उसके लिय अनुकूल जीवन में मददगार है,जिनमें आवास, शिक्षा,आहार, व्यवसाय,और मनोरंजन प्रमुख है. पहले के समय में खेलकूद और लोकसंगीत ही मनोरंजन का माध्यम था,धीरे-धीरे विकास के दौर में इन साधनों में भी बदलाव आया, रेडियो और टेलीविजन ने इस में एक नया आयाम जोड़ा.रेडियो ने शहरों और ग्रामों में लोगों को बाहरी दुनिया से जुड़ाव महसूस कराया वरन उनके लिए ज्ञानवर्धन और गीत संगीत से भी अपनत्व कायम किया,रेडियो केवल सुनकर मनोरंजन करवाता था,वही दूसरी ओर टेलीविज़न ने सुनने और देखने वाले मध्यम के तौर पर सभी को आश्चर्यचकित किया. आज विज्ञानं की नयी क्रांति  मनोरंजन के साधनों में नूतन स्वरुप को जन्म दिया है. इनमें मोबाइल का अविष्कार,होम थियेटर,इन्टरनेट गेम्स,सीडी प्लेयर्स,प्रमुख है. आज बच्चों का जीवन इन्ही में सीमित है, वे अपने परम्परागत मनोरंजन के साधनों को हीन दृष्टि से देखते है,उनके लिए मोबाइल,लैपटॉप के इर्दगिर्द जीवन पूर्ण है.पर क्या आज जिस तरह का मनोरंजन हमारे सामने आ रहा है वो हमारे बच्चों को क्या सिखा रहा है, मनोरंजन ने बच्चों को उम्र से पहले होशियार बना दिया. इंटरनेट ने बहुत से क्षेत्रों में काम आसान कर दिया है,एक बात ये भी है कि इंटरनेट बच्चों को किताबी ज्ञान से विमुख कर रहा है.पहले हम कोई भी विषय की पढाई को उचित रूप से करने के लिए पाठ्य पुस्तक के साथ कई ओर किताबों से अध्ययन करते थे.आज बच्चों की पढाई और किसी भी समस्या का समाधान उन्हें इंटरनेट में ही दिखाई देता है,अगर उनके बड़े उनसे बोले इंटरनेट का कम उपयोग करने कहे तो उन्हें लगता है कि हम उनकी आज़ादी में खलल डाल रहे, क्या ये माहौल इंटरनेट की देन है? आज टेलीविज़न सीरियल्स भी कही ना कही इस सब के लिए जिम्मेदार है.जिनमें भले कॉमेडी से लेकर ऐतिहासिक और पारिवारिक से लेकर हारर जैसी तमाम श्रेणियों के सीरियल हमारे संस्कारों और संस्कृति का संरक्षण करने में सहभागी ना होकर असामाजिक,फूहड़ता और आधुनिकता के साथ पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने का स्रोत बन गए हैं और   आज रिश्तों में दरार का कारण भी बन रहे है, एकल परिवार का बढ़ता ग्राफ भी भी इन्ही का परिणाम है. आज हम मनोरंजन के एक और पक्ष को इसमें शामिल किए बिना नहीं रह सकते,वो है चलचित्र अर्थात फिल्मों का मेला, जहाँ तकनीक की प्रगति तो साफ नजर आती है,वही दूसरी ओर उनकी कहानियां कई बार तो समाज के दर्पण का काम करती है और प्रेरणादायक भी हैं परन्तु कई बार चलचित्र में कहानी से ज्यादा अश्लीलताओं का बोलबाला होने लगा है,जैसे पैडमेन,टॉयलेट एक प्रेम कथा, दंगल,चक दे इंडिया,मेरी कोम,महेंद्र सिंह धोनी,सचिन तेंदुलकर,अज़हर जैसी फिल्में हम में जीवन में संघर्ष के साथ मिसाल बनने का जज्बा जगाती है,वही दूसरी ओर हम साथ-साथ हैं,विवाह,बंधन, दोस्ती, अनपढ़, रोबोट,कृष,मॉम ने हमारे बीच एक अलग छवि अभिव्यक्त की है,जहाँ तक अश्लीलता का बात है, तो मर्डर, हेट लव स्टोरी,जिस्म,टू स्टैट्स,मोहरा और कई फिल्में है,जिनमें गानों का प्रस्तुतीकरण अश्लीलता के सारे रिकार्ड तोड़ता आ रहा है. जब हमारे समाज और परिवारों के बीच इस तरह के मनोरंजन को पेश किया जा रहा है.तो सीबीएफसी[फिल्मों के निर्माण का नियन्त्रण बोर्ड] बीसीसीसी [टेलीविज़न कार्यक्रमों के विषयों पर नियन्त्रण]   जैसी संस्थाओं की लापरवाही का भुगतान हमें भोगना पड़ता है,जब इन संस्थाओं के कड़े मापदंड कुछ निजी स्वार्थों की बलि चढ़ रहे हो,तो क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली को सार्वजनिक करवायें, या अपनी जिम्मेदारी को निभाने में असफल संस्था के अधिकारियों को उनके पद से हटाने की मुहिम चलाने के प्रयासों से पीछे नहीं हटना चाहिए,इसके साथ-साथ सरकारों को भी कानून में बदलाव कर इनको सख्त से सख्त सज़ा का प्रावधान कराना चाहिए.

Friday, February 9, 2018

प्रतिभाओं को पुरस्कार बस नहीं, सम्मानित जीवन भी चाहिए

हम आज के समय में अपने जीवन में वो सब पाने की लालसा करते है। जो हमारे जीवन को एक सार्थक आयाम दे सकता है जो हमें सफल इन्सान के तौर पर स्थापित कर सके। सफलता का मापदंड पूर्णतः हमारी उपलब्धियों पर निर्भर है,उपलब्धियां सदैव हमें श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होने को प्रेरित करती है  और हम अपनी उपलब्धियों से समाज और देश को प्रगति और खुशहाली के मार्ग पर प्रशस्त कर सकते है।
 हमारे देश में हर क्षेत्र के अपने नियम कायदे है। जो उसे दूसरे से भिन्न बनाते है, परन्तु हर क्षेत्र का अस्तित्व उसकी उपलब्धियों से जुड़ा है। देश-समाज में उपलब्धियों का तो भरपूर सम्मान होता है लेकिन समय के साथ साथ सम्मानित व्यक्ति को हम भूल जाते हैं। कई बार तो हम यह जानने का प्रयास भी नहीं करते कि अब वे व्यक्ति किस हाल में हैं जिन्हें कुछ साल पहले सम्मानित किया गया था।

क्या हम जानते है कि इन उपलब्धियों से परे वे अपनी जिंदगी में किस ओर बढ़ते है, आप सोचेंगे ये किस तरह की बात हुई। सफलता प्राप्त व्यक्ति तो सफल जीवन का आनंद ही उठाएगा लेकिन हमेशा हकीकत में ऐसा नहीं होता ।मैने ऐसे अनेक उदाहरण देखे,जहाँ सफलता और पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति एक अदद खुशहाल जीवन तक से मोहताज हैं। फिर चाहे वे खिलाड़ी हो या सैनिक, गणतंत्र दिवस पर हर साल वीरता पुरस्कार पाने वाले वीर बच्चे हों या फिर किसी और क्षेत्र में नाम कमाने वाले, सभी दो जून की रोटी के लिए दूसरों के मोहताज है।चाहे फिर उस खिलाड़ी ने राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय खेलों में पुरस्कार जीतकर देश का नाम रोशन किया हो,उसके बाद उसे अर्जुन जैसे नामी  पुरस्कार ही क्यों ना मिले हो।उसी तर्ज पर सशस्त्र सेना में सैनिकों को उनकी सर्वोच्च सेवाओं के लिए मिलने वाले चक्र हों या फिर उनके परिवार दी जाने वाली सहायता या फिर वीर बच्चों को वीरता पुरस्कार के साथ मिलने वाली सम्मान ।सभी में एक बात समान है कि इन पुरस्कारों पाने वालों के भविष्य को लेकर कोई प्रयास नही किए जाते, जिस से उनका जीवन पूर्णतः सुरक्षित और सम्मान के साथ बीते।ऐसे कई उदाहरण देखने में आए है जहां अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित खिलाड़ी आज अपनी जीविका चलाने के लिए या तो अपने पदक बेच कर गुजारा कर रहे हैं या मजदूरी करने,सब्जी का ठेला लगाने को,चाय की दुकानों में काम करने को  विवश है। वीर बच्चों का भी कमोवेश ऐसा ही हाल देखने में आया है।इसी तरह सैनिकों को बतौर सम्मान जो प्राप्त होता है वो उनके भविष्य के लिए नाकाफी है।अगर कोई सैनिक युद्ध में या किसी और सुरक्षा गतिविधि जैसे आतंकी,नक्सली हमले,प्राकृतिक आपदा में में शहीद होते है, तो केंद्र और राज्य सरकारें उनके परिवारों को आर्थिक मदद देने के वादे तो खूब करती है, पर उन वादों में से कितनों को अमलीजामा पहना पाते है, ये एक विचारणीय बात है। कितने ही शहीदों की विधवाओं को इन सहायताओं को पाने के लिए कार्यालय दर कार्यालय ठोकरें खाते सालों बीत जाते है, हाथ आता है तो आश्वासनों और नए वादों का झुनझुना,जो कहीं ना कही उनकी उम्मीदों को धूमिल कर देता है। वे इन सहायताओं को भूल कर अपने बल पर नए सिरे से रोजीरोटी के इंतजाम में लग जाती है। क्या हम अपनी जिम्मेदारियों को पुरस्कार देने के बाद इनकी भविष्य की सुरक्षा को भी पुख्ता करने के प्रयासों के साथ नही जोड़ सकते? वास्तव में इन सभी तरह के सम्मानों में दी राशि इतनी नही है कि वो इनके वर्तमान के साथ-साथ इनके भविष्य को भी सुरक्षित कर दे। इन सम्मानों के साथ एक जो जरूरी बात हमारी सरकारों को ध्यान देनी चाहिए वो है कि इन सभी क्षेत्रों के लोगों के भविष्य के लिए कोई ऐसी योजना तैयार होनी चाहिए जो इनको भविष्य में मजदूरी करने जैसे कामों को ना करना पड़े। इनके परिवारों को इनके खिलाड़ी, वीर बच्चे, सैनिक होने पर गर्व हो ना कि शर्मिंदगी क्योंकि कही ना कही ये हमारे देश की धरोहर है जिन्हें संरक्षित करने की दरकार है।जो आने वाली पीढ़ियों को देश के लिए समर्पित और न्यौछावर होने के प्रेरणास्रोत है।            

Wednesday, January 24, 2018

अध्ययन के स्थान पर अपराध का केंद्र क्यों बन रहे हैं स्कूल ?


  क्या हमारे देश के नामी-गिरामी स्कूल भी धीरे धीरे अमेरिकी तर्ज पर संस्कृति और संस्कारों से विचलन का माध्यम बन रहे हैं? आखिर क्या वजह है कि पठन-पाठन का केंद्र विद्यालयों में अराजकता बढ़ रही है और अध्ययन का स्थान अपराध ले रहा है? स्कूल के बस्तों में किताबों के साथ पेन-पेन्सिल की जगह चाकू-पिस्तौल नजर आने लगे हैं और मोबाइल फोन ज्ञान का दरवाजा खोलने की बजाए अपसंस्कृति का खिलौना बन रहे हैं? ऐसे कई सवाल है जो इन दिनों सुरसा के मुंह की तरह हमारे सामने अपना आकर बढ़ाते जा रहे हैं और हम उनका उत्तर खोजने के स्थान पर लीपापोती में या फिर इन्हें सामान्य आपराधिक घटना मानकर क़ानूनी प्रक्रिया के पालन भर से संतुष्ट हैं।
पाश्चात्य संस्कृति से परिपूर्ण विश्व में विकास और प्रगति के नए आयामों ने हमें एक अलग मुकाम की ओर पहुँचाया है।इसने एक ओर वसुधैव कुटुम्बकम को सार्थक किया है वहीँ कई बुरी आदतों को भी जन्म दिया है। धीरे-धीरे इस विकास की अंधी दौड़ ने हमे कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है,अब आप सोचेंगे जब सब कुछ प्रगति के उच्चतम स्तर पर है, तो अब किस ओर सोचने की जरुरत है। बेशक प्रगति ने विश्व के सभी देशों को मिलकर आगे बढ़ने का मार्ग दिखाया है,पर  अमेरिका जैसे कई देशों में चंहु ओर तकनीकी प्रगति के बीच वहां के स्कूलों में बढ़ रहे अपराधिक ग्राफ ने हमें चिंता में डाल दिया है। आजकल आए दिन वहां के स्कूलों में गोलीबारी की घटना ने कहीं न कहीं  सर्वसुविधा सम्पन्न स्कूलों के माहौल पर प्रश्नचिन्ह लगाया है,वो भी उन विकसित देशों के स्कूलों पर जो भारत जैसे विकासशील देशों के आदर्श है क्योंकि उसी तर्ज पर विकासशील देशों में भी सर्वसुविधायुक्त स्कूलों की अवधारणा ने जन्म लिया और फिर हमारी नकलची प्रवृत्ति ने पाश्चात्यीकरण को पूरी तरह अपनाते हुए अपनी संस्कृति को पीछे छोडकर विकास के इस नए प्रारूप को अपनाना शुरू कर दिया। सरकारी स्कूलों को दरकिनार करते हुए पब्लिक स्कूलों का जाल शहरों से लेकर ग्रामों तक फैला दिया। इस विस्तार ने एक ओर जहाँ शिक्षा के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी भाषा को बढ़ावा देते हुए संस्कृत-हिंदी जैसी हमारी मातृभाषा को अपमान करने का तरीका बना दिया।मतलब अब जिसे अंग्रेजी नही आती उसे तिरस्कृत नजरों से देखा जाता,तो कही ना कही अपमान सा ही तो है,पर क्या ये माहौल हमें  वाकई हमारे लक्ष्य तक पहुंचाएगा? हमने भी अमेरिका जैसे देश की शिक्षा प्रणाली को अपनाते हुए इस आधुनिकता के अनेक उदाहरण देखे है,हमारे स्कूलों की अवधारणा भी बदल रही है आज हम अपने बच्चों को पब्लिक स्कूलों में डाल रहे है,वो भी ये सोचकर कि इन स्कूलों के माहौल में रहकर हमारे बच्चे प्रगति के पथ पर तीव्र गति से बढ़ेंगे और हमारा  भी अपने दोस्तों और समाज में अपना रुतबा बढ़ा सकेंगे,सरकारी स्कूलों में तो नीची जाति और गरीबों लोगों के बच्चे पढ़ते है,आज पब्लिक स्कूल में पढ़ाना उच्च जीवन स्तर का आइना है।चाहे फिर उसके लिय कुछ भी दांव प  संस्कृति,सभ्यता,परिवार,संस्कार  सब को  दांव पर लगा रहे है,जहाँ सरकारी स्कूल आपको परिवार का महत्व संस्कृति,संस्कार सिखाने में अव्वल थे।वही पब्लिक स्कूलों ने इस ओर से आँखेंमूँद रखी है.  
                    अगर हम इस ओर सोचे तो क्या केवल हमारे आसपास का माहौल, हमारे बच्चों की संगत, सोशल मीडिया का प्रभाव ही इस आधुनिकता को आगे बढ़ा रहे है,या कुछ और भी है तो वो है हमारी सोच, हम जैसी सोच लेकर चलते है वही हमारे व्यवहार में नजर आता है,आज के समय में सम्मान और नैतिकता का ह्रास हो रहा है,आज शिष्य गुरुओं को उचित दर्जा नही दे रहे और ना गुरु शिष्य को,समाज में अपनत्व, प्यार,सम्मान का कोई मोल नही,इनके स्थान पर प्रतिस्पर्धा,रागद्वेष दुश्मनी,दिखाई दे रहे,इस माहौल के लिए हम किसे दोष दे सकते है,अपने आप को,अपने बच्चोंको,  समाज को,स्कूलों को,सोशल मीडिया को। विद्यालय ज्ञान का मन्दिर है, जहाँ हमें एक नेक और आदर्श नागरिक बनने की सीख मिलती है,पर क्या आज हमारे विद्यालय इस बात को पूर्ण कर रहे? शायद नही तो स्कूलों में हो रही दुखद घटनाओं ने हमें ध्यान दिलाया है, हाल ही में गुरुग्राम में प्रदुम्न हत्याकांड, शिक्षकों द्वारा छात्राओं की अस्मिता से छेड़छाड़, मोबाईल का गलत उपयोग,छात्रों का एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में तेजाब जैसी खतरनाक चीज़ों का इस्तेमाल, स्कूल में ड्रग्स की बढ़ती लत,क्या इन सबके बाद आप और हम जैसे लोग विद्यालय को असामजिक तत्व का केंद्र ना कहे तो क्या कहे, किसी विद्यालय में एक छात्र ने प्राचार्य को गोली मारकर घायल कर दिया, इसी माहौल में परवरिश शिक्षा पाए बच्चे ही आगे जाकर अपराधों की नयी फेहरिस्त बढ़ाते है,तो क्या हमारा फ़र्ज़ नही बनता कि हम इस ओर सभी का ध्यान आकर्षित करें, क्योंकि एक समृद्ध राष्ट्र के जागरूक नागरिक होने के नाते ये हमारा कर्तव्य है कि देश में जितने भी विद्यालयों में शिक्षा का मापदंड उचित नही है,वहां सुधार के प्रयास युद्धस्तर पर चलाये जाए, स्कूलों में सुरक्षा के साधनों का प्रबंध,छात्रों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाए,प्रतियोगिता केवल विषयगत हो ना कि वो एक दूसरे से इर्ष्या का माध्यम बने,स्कूल चाहे सरकारी हो या पब्लिक दोनों में सीसीटीवी का इस्तेमाल सुरक्षा के लिए हो,शिक्षकों का सभी छात्रों (चाहे वो लड़का हो या लड़की) के साथ समानता का व्यवहार हो,छात्रों के अभिभावकों से समय समय पर मिलकर विद्यार्थियों के बारे में अपना और उनके विचारों आकलन करते रहे, बच्चों के लिए स्कूलों में परामर्शक भी नियुक्त करें,जो छात्रों की स्कूली समस्या का समाधान स्कूल में ही करवा दे,शिक्षकों को भी समय समय पर प्रशिक्षण दिलाकर उनकी क्षमताओं में वृद्धि भीकराए,स्कूल अपने परिसर में  किसी भी अवांछित स्टाल या दुकानों (जैसे  शराब, पान चाय) को शुरू करने का लाइसेंस ना दें, स्कूल में शिक्षकों  को नियुक्त करने से पहले उसके बारे में पूरी जानकारी भी ले लें,छात्रों और शिक्षकों के लिए केन्टीन की सुविधा भी हो।इस तरह हम अपने विद्यालयों को एक आदर्श विद्यालय की श्रेणी में ला पायेंगे,और देश को एक उत्कृष्ट नागरिक और सुलझा हुआ समाज दे पाएंगे

Saturday, January 13, 2018

सीमा पर संबंधों के दो अलग रंग

हमारे देश की  उत्तरोतर उन्नति ने विश्व की सभी शक्तियों के बीच हमारी एक अलग पहचान कायम की है.यह पहचान हमें अपनी प्रगति और विकास के साथ साथ अपनी वैश्विक उदारता की वजह से भी प्राप्त हुई है.हमारा देश अब विकासशील देश की परछाई से उबरकर वैश्विक शक्ति के तौर पर उभारने की ओर अग्रसर है.यही कारण है हम अपने सभी पड़ोसी देशों से संबंधों को एक नयी दिशा में ले जा रहे है. सभी पड़ोसी देशों के साथ व्यापार ,परिवहन, आपदा स्थिति में आगे बढ़कर सहायता द्वारा हम नयी इबारत लिख रहे है.आज के समय में अपने संसाधनों से खुद का विकास तो हर राष्ट्र  करता है, पर उस से दूसरे राष्ट्रों की सहायता का दृढ निश्चय सिर्फ हमारे देश का है.                                                                                                                                 
इसी श्रृंखला में जो बात सबसे पहले ध्यान आती है, वो नेपाल की है, अभी  कुछ समय पूर्व नेपाल में भीषण भूकंप के तौर पर प्राकृतिक आपदा आई थी. वैसे उस से हमारे भी कुछ राज्य प्रभावित हुए थे, पर हमने अपनी विपदा भूलकर तत्काल नेपाल को सभी तरह से मदद प्रदान की, इसी तरह हमारे एक और पड़ोसी श्रीलंका में भी विपदा आने पर हमने एक जागरूक मददगार दोस्त की  भूमिका निभाई.मालद्वीव को विद्रोह से बचाने और अफगानिस्तान की हर स्थिति में मदद जैसे अनेक उदाहरण है जो भारत की मददगार भूमिका को चिन्हित करते हैं. इसी तरह हम अपने सभी मित्रवत देशों के साथ सदैव प्रगति की ओर साथ साथ कदम बढ़ने का माद्दा रखते है. पर क्या सभी देश हमारी इस कोशिश में भागीदार बनना चाहते है ? शायद नही, पर आप सोचेंगे कि मैंने नही क्यों कहा, तो उसके कुछ कारण है जैसे सभी देश हमारे साथ सम्बन्ध बनाना तो चाहते है, पर उनकी नियत साफ़ नही,वे वैश्विक मंच पर खुद को पाक-साफ दिखाते है पर परदे के पीछे हर ओर से हमारी वैश्विक छवि को धूमिल करने में लगे रहते है. वे चाहते है कि उनके मित्रवत मुखौटे में उलझकर हम उनके सभी करनामों को दरकिनार करते चले, पर ये किस तरह सम्भव है, जब अन्य सभी देश हमारे साथ वैश्विक प्रगति की नई परिभाषा लिखने तत्पर है. ऐसे में आस्तीन के सांप जैसा व्यवहार करने वाले  मित्र वसुदेव कुटुम्बकम की हमारी संस्कृति को कही ना कही पूर्णता की ओर ले जाने में बाधक है, अपनी बात को और  स्पष्ट करने के लिए  अगर हम दो देशों कि मित्रता का तुलनात्मक आकलन करें तो अंतर साफ़ दिखाई पड़ता है,खासतौर पर जब बात हमारे दो पड़ोसियों बांग्लादेश और पाकिस्तान की हो.
जहाँ  दोनों देशों की सीमाएँ हमारी देश की सीमा से जुड़ी है ,वही दोनों सीमाओं पर स्थिति भी अलग अलग होती है, एक ओर सीमा पर प्रतिस्पर्धा का माहौल बना रहता है,वही दूसरी ओर मित्रवत माहौल
है,जहाँ एक सीमा पर प्रतिस्पर्धा का माहौल देखकर जब लोग दूसरी सीमा पर पहुँचते हैं तो  दूसरी सीमा पर बना  मित्रवत माहौल देख कर अचरज में पड़ जाते है, पाकिस्तान और भारत की वाघा सीमा अमृतसर के पास है,जहाँ प्रतिदिन फ्लैग लोवरिंग सेरेमनी (ध्वज उतारने का समारोह) होती है,जो है तो एक सामान्य प्रक्रिया पर यहाँ भी कही ना कही प्रतिष्ठा और प्रतिस्पर्धा का माहौल साफ़ दिखाई देता है . हमारे सैनिक इस समारोह में प्रतिभागी बनकर अपने ही शरीर को कष्ट पहुचाते हुए भी पीछे नही रहना चाहते.कुछ तो हमेशा के लिए शारीरिक तौर पर अक्षम तक हो जाते हैं  लेकिन वे किसी भी तरह  उस प्रतिस्पर्धा पर केन्द्रित समारोह में अपनी श्रेष्ठता साबित में पीछे नहीं रहना चाहते और यह कोई एकतरफा नहीं है बल्कि सीमा के दूसरी ओर भी यही हाल है. इस तरह सीमा पर जहां मित्रवत माहौल होना चाहिए, वहां मुकाबले  की कसौटी ने इसे एक विकृत रूप दे दिया है.दोनों सरकारों के प्रयास भी नाकाफी साबित हो रहे है,और पाकिस्तान ने तो हर बार मित्रता के प्रयासों को शर्मसार किया है वो अपने संसाधनों का प्रयोग अपने विकास या अपने नागरिकों का भविष्य सवारने में करने के स्थान पर भारत विरोधी क्रियाकलापों में करने लगा है .इस से एकदम भिन्न हालात भारत बंगलादेश की अखौरा सीमा पर हैं. यहाँ भी अभी कुछ समय पहले ही फ्लैग लोवरिंग सेरेमनी की शुरुआत हुई है.अखौरा सीमा पर जहाँ वाघा सीमा से भिन्न वातावरण नजर आता है ,इस सीमा पर हम मित्रवत माहौल को एक नए रूप में देख पाते है,जहाँ खुशहाल वातावरण में यह समारोह  हमे दोस्ती का एक नया आयाम प्रदर्शित करता है..क्या हमारे सभी पड़ोसीदेश और खासतौर पर पकिस्तान अपनी सीमा पर ऐसे ही मित्रवत माहौल को आगे नही बढ़ा सकते,हमारे प्रयासों में सहयोगी बनकर हमारे पड़ोसी दोस्ती और विकास की नयी परिभाषा लिखकर वसुदेव कुटुम्बकम को साकार करने में सहभागी नहीं बन  सकते . यदि ऐसा हो गया तो एशिया के यूरोप जैसा संपन्न बनने में देर नहीं लगेगी और हम सब साथ मिलकर विश्व मंच पर अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज करा सकते हैं.

सुरंजनी पर आपकी राय