Monday, June 20, 2011

नारी अब तुम केवल 'विज्ञापन' हो

                                          आज हम विकसित समाज में रह रहें है.जहाँ हम अपनी परम्परा और आदर्शों को लेकर आगे बढ़ रहे है.आज हम अपनी जीवन  शैली को आज के अनुरूप ढालने का प्रयास कर रहे है.पर क्या इस प्रयास में हम अपनी पहचान तो नहीं खो रहे है. हम तो अपने बड़ों की बताई बातों  को सम्मान देते है.उनके अनुसार आगे बढते है, समाज में नारी का ओहदा सबसे ऊँचा मानते है. आज की नारी पुरुषप्रधान समाज में पुरुषों के कंधे  से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है.लेकिन इस भाग दौड में हम कहीं कुछ पीछे छोड़ते जा रहे है क्या हम कभी उस पर गौर करेंगे ?                                                           
           ऐसा क्या है जो प्रगति के मायने बदल रहा है?प्रगति से तो देश, समाज, की बदलती तस्वीर सामने आती है.आमतौर पर हम अपने आसपास के माहौल से प्रभावित होते है.और अपनी सफलता के लिए सभी के सहयोग को सर्वोपरि मानते है.आज के समय में प्रतियोगिता का समय है.जहाँ हर कोई दूसरे से आगे निकलने के लिए हर तरह के प्रयास करता है.इस माहौल में विज्ञापनों का बोलबाला है.जो हमें वर्तमान की एक नयी परिभाषा समझाते है, आज विज्ञापन उत्पाद के अनुसार नहीं होते, इनमे श्रेष्ठता की जंग  ही दिखाई  देती है जिसमे केवल आगे निकलने की धुन सवार है. .विज्ञापन में सादगी का स्वरुप कहीं खोता जा रहा है.विज्ञापन पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण करनेवाले ज्यादा लगने लगे है.क्योंकि कहीं न कही इनमे औरत को एक अश्लीलता प्रदर्शन का जरिया बनाया जा रहा है. आज आप टेलिविज़न के किसी भी विज्ञापनों को देखें तो पता चलता है कि उनमें प्रचार से ज्यादा अश्लीलता ने अपना स्थान पा लिया है जिस पर किसी को भी एतराज़ नहीं न ही कोई शिकायत है.आप किसी भी उत्पाद का विज्ञापन लेले चाहे फिर वो नेपकिन का विज्ञापन हो,परफ्यूम का हो, साबुन का हो, क्रीम का,शैम्पू का,कोल्ड ड्रिंक का, सूटिंग-शर्टिंग का, कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन हो सभी नारी की अस्मिता पर सवाल उठाते नज़र आ रहे है.क्या हम इस तरह की बेइजती इसी तरह  होते रहने देंगे या इस लिए कदम उठाएंगे क्योंकि इन विज्ञापनों में नारी के स्वरुप को देखकर कम से कम इस बात पर यकीं नहीं होता कि हमारे देश में नारी को देवी का दर्ज़ा प्राप्त है,  देवी को तो हम कम से कम इस तरह के स्वरुप में नहीं पूजते? क्या हम अपने मूल्यों और आदर्शों के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? क्या हम अपनी बहिन,बेटियों को वो समाज, वो माहौल दे रहे है जो उन्हें मिलना चाहिए?दरअसल समाज में बढ़ रही अराजकता के पीछे भी कहीं न कहीं हमारी बदली सोच ही जिम्मेदार है.आज नारी को समाज में सम्मान तो मिल रहा है  पर कहीं न कहीं अभी भी पूर्ण सम्मान की इबारत लिखी जाना बाकी है,.क्या अगर विज्ञापनों में नारी का अश्लील स्वरुप नहीं होगा तो कंपनियों को उस की सही कीमत नहीं मिलेगी? मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ.अगर सही विचार और सही सोच के साथ सही मार्गदर्शन हो तो इस तरह के विज्ञापनों को बदलकर परम्परा और संस्कृति से जुड़े मूल्यों को ध्यान में रख कर विज्ञापन बन सकते है और कम्पनियाँ लाभ  प्राप्ति के सारे रिकॉर्ड तोड़ सकती  है तो क्यों नहीं इस और सार्थक प्रयास की शुरुआत हम करें और नारी की धूमिल होती तस्वीर में आशा और विश्वास के नए रंग भरें...............                                                                                                                    

14 comments:

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  2. दो बातें हैं - एक तो बाजार में जो भी होगा उसे बाजार ही संचालित करेगा चाहे व्यक्ति हो या की विचार दुसरे यह की क्या हमारा समाज यह तय करने में सक्षम हो गया है की नारी का स्थान क्या हो.
    हालाँकि यह दोनों बातें मेल नहीं खाती लेकिन इनके प्रभाव एक जैसे हैं. एक तरफ बाजार वाद लुभाता है और मन ही मन नारी को पूरे अधिकार देने की बात भी की जाती है.
    यह बाजारवाद ही है जिसके सामने सिद्धांत कोई मायने नहीं रखते हैं, मूल है की जिस उम्र में हम संभल नहीं सकते थे हम पर बाजार वाद थोप दिया गया. उसके नुकसानों को वरदान की तरह प्रस्तुत किया गया. नारी के साथ भी वोही खेल हो रहा है हमारे समाज को सँभलने का मौका नहीं दिया गया और विरोधाभाषी सुर सामने आने लगे....
    बहार हाल इस मुद्दे पर बहुत कुछ है कहने सुनने के लिए आपने बिलकुल सही मुद्दा उठाया है और बहुत ही संजीदगी से....बधाई

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  3. जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं और बधाई.. सवाई सिंह

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  4. आपको जन्‍मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  5. अच्छा मुद्दा है लेख बढिया लिखा है ।लेकिन कुछ आज के दौर मे सब चलता है कि तर्ज पर जिसे हम अशलील कहते हैं कुछ को कोई फर्क नहीं पढता।कोई मजबूर है कोई नहीं है पर ये फैशन है ये समझ औरतों मे ही होना चाहिये उनके लिए क्या उचित है


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  6. लेख पर इतना कहना चाहूंगा तय हमें करना हैं किस दिशा को चुनना हैं पश्चिम से आती ये हवाओं भारतीय परिवेश में फूहड़ता हैं चूँकि हम नकल में अक्ल नही लगाते बल्कि मार्डन होने का स्वांग रचते हैं। नारी का आकर्षण तो पूरे कपड़ो में भी हैं फिर हम भारतीयों ने आसानी से पश्चिमी सभ्यता की घातक संस्क्रति को आसानी से स्वीकार किया खासकर तब जबकि नदियॉ,पहाड़,वृक्ष,में हम मां के रूप में नारी को ही पूजते हैं।

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  7. इस लेख का संदर्भ बहुत बड़ा है।
    अगर बाज़ारवाद की बात की जाए तो यह बहुत प्रकार के प्रोडक्ट्स से भरा पड़ा है: 1: विज्ञापन हो या सीरियल हर जगह नारी आकर्षण सर्वोपरि है। नारी "ग्लैमर" का सिंबल है।
    यह सोच समाज से आती है जिसे भी एम्पोवर होने की जरूरत है।
    बाज़ारवाद मे जो खरीदा जा रहा है वही बिक रहा है।
    2: विज्ञापन मे नारी के और भी पहलू दिखाए जाते है जैसे
    नारी शक्ति है,माँ है,कामकाजी है,दोस्त है और भी बहुत कुछ।
    अपने आप मे नारी बहुत परिपक्व है। ऐसे विज्ञापन भी बहुत पसंद किए जाते हैं।

    आजकल वीमेन एम्पोवर है और क्रमशः इस पर हमारा समाज प्रगतिशील भी है। हमारा समाज अभी भी अधपका है। जिसे समय देने की जरूरत है।
    और बाजार सिर्फ विज्ञापन से नही है, ग्राहक सर्वेसर्वा है। कंसुमेर(नारी हो या पुरुष) को ही तय करना है कि प्रोडक्ट ग्लैमर देख कर खरीद जाए या क्वालिटी।

    बहरहाल नारी शक्ति, सौंदर्य और समझ, इसका एक उत्कृष्ट स्थान है, यह समझना बहुत अनिवार्य है।हमारे समाज को और निर्माताओं को भी।




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  8. बहुत अच्छा लेख मनीषा जी... नारी अपनी छवि के लिए स्वयं जिम्मेदार है और हमे समय रहते जागरूक होने और करने की आवश्कता है।

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