Tuesday, April 14, 2020

रिश्तों की नई अवधारणा





हम बतौर मनुष्य एक खास सामाजिक परिवेश के बीच अपना पूरा जीवन जीते है और इस परिवेश के निर्माण में रिश्तों की अहम् भूमिका है लेकिन आज रिश्तों को लेकर अलग तरह की स्थितियां देखने को मिल रही है. आमतौर पर अब लोगों में रिश्ते केवल स्वार्थपूर्ति का माध्यम रह गए है,वे रिश्ते को निभाने से ज्यादा उनका उपयोग अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए करते है. इस माहौल में विश्वास,अपनेपन, ईमानदारी, त्याग,समर्पण,प्यार,मिलनसारिता,आपसी-सामंजस्य,सहयोग जैसे गुण शब्द से ज्यादा कुछ नही नजर आते. ना ही कोई सार समझा पाते है जबकि वास्तव में ये मानव जाति को सर्वगुण सम्पन्न बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है.
कुछ समय पहले तक हमारे समाज में संयुक्त परिवार की अवधारणा पूर्णतः तर्कसंगत थी परन्तु आज के परिवेश में एकल परिवार की मजबूत होती परिभाषा ने इसे बेअसर करने में कोई कसर नही छोड़ी है. आज संयुक्त परिवार को महत्व देने वालों को दकियानूसी और रूढ़िवादी सोच का तमगा पहना दिया जाता है. पर क्या संयुक्त परिवार के हिमायतियों के साथ यह व्यवहार शोभनीय है? आज 21वी सदी के परिप्रेक्ष्य में हम सभी की सोच आधुनिक और वैज्ञानिकता से जुडी होना चाहिए. एक ओर हम अपने को आधुनिकता और पश्चिमी संस्कृति के द्योतक मानते है, तो हमें अपनी प्राचीन संस्कृति को भी अपनाते हुए आधुनिकता और संस्कृति के मिश्रण कर एक नया वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए.
परिवार का आशय केवल माता-पिता, भाई-बहन,दादा-दादी,के बीच जुड़े बंधन भर से नहीं है बल्कि इसे और वृहद रूप में समझना चाहिए. मेरे विचार में परिवार शब्द किसी परिभाषा का मोहताज नही, बल्कि परिवार तो एक विशाल वृक्ष की भांति है,जो सदैव अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है और अपने सभी हिस्सों को जोड़कर रखता है, अपने सभी अंगों को पोषित-पल्लवित करता है.जिससे तना,पत्ती,फूल,फल का विकास हो पाता है.इसी तरह परिवार रुपी वृक्ष का आकार भी सदस्यों के अनुसार बढ़ता है. अगर परिवार में सुख,शांति,समृधि,प्यार और अपनापन होता है, तो यह दिन दुनी- रात चौगुनी तरक्की करता है. इस तरह एक फलदार पेड़ की तरह परिवार भी अपने सभी हिस्सों के साथ ज्यादा आकर्षक रूप में प्रकट होता है.
आज वास्तविकता इसके उलट है,हम रिश्तों और परिवार के बीच वो आत्मीयता और विश्वास की कमी पाते है. सारे सदस्य अपनी आजीविका को चलाने की वजह से घर और परिवार से दूर हो रहे है.जिससे समाज में एक अलगाव का भाव दिखाई देने लगा है,सभी अपने जिम्मेदारियों और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठाने में ही अपना पूरा समय बिता देते है.इन स्थितियों में वे उत्सवों और त्योहारों में भी एक साथ मिलकर उनका आनन्द नही ले पाते, उनके लिए त्यौहार बस एक रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नही होते. वे अपने एकल परिवार के साथ बाकि सारे रिश्तों को नगण्य मानने लगे है. उनके लिए किसी भी ख़ुशी या अच्छे समाचारों का अर्थ केवल एकल आयोजन तक सीमित हो गया है. क्या यह आज के मशीनी युग का प्रभाव है, या मनुष्य के रोबोट में परिवर्तित होने का संकेत.
आप सोच रहे होंगे ये कैसी बात मैने छेड़ी है तो मै आप को बताना चाहूंगी, जिस तरह हमने सभी क्षेत्रों में प्रगति के नए आयाम स्थापित किये है. उसी तरह हम मानवीय जीवन में भी मशीनों के बीच रहते-रहते स्वयं को रोबोटिक संस्कृति का रूप मान बैठे है. हम में अब मानव के लक्षणों से ज़्यादा मशीनों के लक्षण परिलक्षित हो रहे इसलिए भावनाओं,प्यार, दुःख का कोई असर दिखाई नही देता, पर इस तरह के बर्ताव के लिए क्या सिर्फ मशीन ही जिम्मेदार है? शायद नही, मेरे विचार से हम पर टेलीविज़न सीरियलों और फिल्मों का असर भी काफी है. आजकल की फिल्में और सीरियल रिश्तों को जोड़ने के स्थान पर तोड़ने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. इन सीरियलों में परस्पर रिश्तों में नफरत, षडयंत्र, चालबाजी, धोखा देने, इर्ष्या, द्वेष,दुश्मनी को इस तरह पेश किया जाता है जिसे देखकर कई लोग प्रेरणा तक लेने लगे हैं . आज की पीढी इन्ही से प्रेरित होकर रिश्तों को केवल स्वार्थ पूर्ति के तौर पर अपना रही है. उनके विचार से हमारी बुजुर्ग पीढी रोक-टोक की परम्परा ही निभाना जानती है और उसके बाद माँ-बाप वाली पीढी जब अपने बचपन की बातें सुनाती है तो उसमें भी उन्हें गुणगान ही नजर आता है. इस पीढ़ी के अधिकतर लोग कभी अपने बड़े बुजुर्गों की बातों को सीख के तौर पर लेने के बजाय केवल भाषण जैसा लेते है. क्योंकि उनके विचार से ये बातें केवल एकतरफ़ा सुनाई देने वाली चीज़ है, जबकि परिवार के बुजुर्ग उन्हें कुछ अच्छा सीखने की ओर अग्रसर करना चाहते है. जब भी आजकल की पीढी को कोई बात बोली जाती है, तो पहले तो वे इसे दरकिनार करने की कोशिश करते है भलेही बाद में, भले ही वो बात उनके लिए फायदे की ही क्यों न निकले. आज के समय में हर छोटी बड़ी बात पर रिश्तों में तल्खी आना सामान्य सी बात है पर पारिवारिक रिश्तों में ये तल्खी अजीब ही तो है, उदाहरण के तौर पर जैसे पहले अगर परिवार में बड़े सदस्यों द्वारा छोटों की किसी गलती पर उन्हें  कुछ बोल देते थे, तो उसे एक अच्छे परामर्श की तरह महत्व दिया जाता था पर आज के इस परिवेश में हम देख रहे कि बच्चों की गलतियां होने के बावजूद उनके माता पिता घर के बड़ों को दखलंदाज़ी ना करने की सलाह देने से नही चूकते. जबकि उन्हें पहले बात की वास्तविकता पर गौर करना चाहिए. सभी तथ्यों पर गौर करने के बाद उन्हें ये देखना चाहिए कि अगर उनके बच्चे की गलती है,तो बड़ों को बोलने से पहले बच्चों को उनकी गलती बताकर बड़ों से माफ़ी मांगने को प्रेरित करना चाहिए और घर के बड़ों का घर में सम्मानपूर्ण स्थान बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए.
कुल मिलाकर कहने का आशय यह कोई भी दौर,समय,पीढ़ी,संस्कृति और समाज हो,परिवार के महत्त्व को कम करके नहीं आँका जा सकता क्योंकि परिवार है तभी हमारा अस्तित्व है और हमारे अस्तित्व से ही समाज,देश और दुनिया का वजूद है. इसलिए परिवार से भागिए मत बल्कि उससे जुड़िये और सभी अपनों को जोड़िये क्योंकि अगर जड़ें कमज़ोर हो गयी तो पेड़ को गिरने में देर नहीं लगेगी.


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